वो तारीख़ भी 12 सितम्बर थी …! जब समाना पर्वतीय रेंज के सारागढ़ी गाँव (Saragarhi war) की भूमि पर सिख रणबांकुरों ने जंग के इतिहास में एक ऐसा पन्ना जोड़ा जिसकी मिसाल न तो उससे पहले और न ही उसके 121 साल बाद, यानि अब तक दुनिया के किसी कोने में दिखाई या सुनाई दी. सारागढ़ी के युद्ध (Saragarhi war) के तौर पर याद की जाने वाली इस जंग में 21 सिख फौजियों ने हज़ारों की तादाद में आये हमलावर दुश्मनों का दिलेरी से मुकाबला किया और उस सैनिक चौकी को नहीं छोड़ा जहां उन्हें तैनात किया गया था. आखिरी सैनिक ने यहाँ आखिरी सांस तक दुश्मन के खिलाफ मोर्चा सम्भाले रखा.
ये वो ज़माना था जब ब्रिटिश शासन ने भारत को अपने कब्ज़े में ले रखा था और अंग्रेजों का साम्राज्य विस्तार जारी था. अफगानिस्तान पर ब्रिटिश के अलावा रूस की भी निगाह थी. तब भारतीय सेना को ब्रिटिश इन्डियन आर्मी कहा जाता था और सारागढ़ी के पहाड़ पर इसी की सिग्नल चौकी (Hellographic communication post ) थी. सामरिक नजरिये से चौकी का महत्व इसलिए था क्यूंकि यहाँ से हेलोग्राफी (सूर्य की रोशनी का इस्तेमाल करके शीशे से प्रकाश के परावर्तन) के जरिये ही अलग अलग छोर वाले गुलिस्तान और लोकहार्ट किलों (महाराजा रणजीत सिंह के बनवाये) के बीच संदेशों का आदान प्रदान होता था.
हिन्दुकुश पर्वत श्रृंखला की समाना रेंज के लोकहार्ट किले और सुलेमान रेंज के गुलिस्ताँ किले के बीच कुछ मील का फासला था (वर्तमान में ये इलाका पाकिस्तान के खैबर पखतूनख्वा प्रांत में है और सीमावर्ती कोहाट जिले में है) और स्थानीय कबीलों की कोशिश इन किलों पर कब्जा करने की रहती थी. वो अक्सर अंग्रेजों को अपना निशाना बनाते थे सरकार की नाक में दम किये रखते थे. शासकीय काम के नजरिये से भी दोनों किलों के बीच सूचनाओं का लेनदेन अहमियत रखता था और यही वजह सारागढ़ी की सैन्य चौकी को और खास बनाती थी.
दोनों किलों के बीच तालमेल को खत्म करने रणनीति के तहत 12 सितम्बर 1897 की सुबह , गोली बारूद से लैस 10 हज़ार अफरीदी और ओरकजई कबीलाइयों ने चौकी पर कब्जा करने की नीयत से धावा बोला. उस वक्त चौकी पर बंगाल इन्फेंटरी की 36 (सिख) रेजिमेंट के 21 जवान तैनात थे. वर्तमान में सिख रेजिमेंट की 4 बटालियन हैं. चट्टानी इलाके में बड़े बड़े चौकोर पत्थरों से मकान की तरह बनाई गई इस हेलोग्राफ चौकी से सुबह 9 बजे पहला संदेश मिला जो सिग्नलमैन गुरमुख सिंह ने लोकहार्ट किले को भेजा जिसमें बताया गया कि हज़ारों की तादाद में हमलावर चौकी की तरफ बढ़ रहे हैं.
ये संदेश कर्नल होग्टन को मिला तो उनकी तरफ से जवाब था कि बचाव और मुकाबले के लिए तुरंत मदद पहुंचना मुमकिन नहीं है. तब इस सिग्नल चौकी के इंचार्ज हवलदार ईशर सिंह और साथियों ने खुद ही मोर्चा सम्भालने का फैसला लिया जबकि वो जानते थे कि तोपखाने तक से लैस दुश्मन से, इस मुकाबले में उनकी मौत निश्चित है. वो चाहते तो खुद की जान बचाने के लिए चौकी छोड़कर निकल भी सकते थे. हमले के दौरान भी उन्हें दुश्मन ने सुरक्षित निकलने देने का वादा भी किया लेकिन इन सैनिकों ने वर्दी और कर्म को ही धर्म मानकर इसको निभाने का प्रण ले लिया था.
हमले में पहला सिपाही भगवान सिंह शहीद हुआ और इस दौरान हमलावरों की चौकी में घुसकर कब्ज़ा करने की कोशिश सिख सैनिकों ने दो बार नाकाम की. आखिरी सिख जो यहाँ शहीद हुआ वो वही सिपाही गुरमुख सिंह ही था जो सिग्नल के जरिये सारे हालात किले तक पहुंचा रहा था. लेकिन वो भी मुकाबला करते हुए ही शहीद हुआ. उसने आखिरी दम भरते हुए सिर्फ एक वाक्य कहा था ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’.
इन 21 सिख सैनिकों ने सारागढ़ी में हमलावरों को इतनी देर तक मुकाबले में उलझाये रखा कि हमलावरों के वहां मजबूती से जमने से पहले ही सेना आ गई और फिर खूब घमासान हुआ. कुछ ऐतिहासिक रिकार्ड के मुताबिक इस युद्ध (Saragarhi war) में 600 हमलावर कबीलाई मारे गये थे और उनमें से 180 का काम तमाम तो सारागढ़ी चौकी के 21 सिख सैनिकों ने किया था. ये सभी सिख भारत के पंजाब के माझा क्षेत्र के थे.
अदम्य साहस, शूरवीरता और अव्वल श्रेणी के बलिदान की प्रेरणादायक इस गौरव गाथा की याद में पंजाब समेत कई जगह पर सारागढ़ी दिवस मनाया जाता है.
Unparalleled feat of Leadership dedication and Bravery- Thank you for Publishing this- Regards Maj Rakesh Sharma, Shaurya Chakra