बलात्कार की बढती घिनौनी घटनाओं के बीच सोशल मीडिया पर इन दिनों बिष्णु श्रेष्ठ की करीब आठ साल पुरानी कहानी पर चर्चा हो रही है. ये भारतीय सेना का वही जांबाज गोरखा है जो एक महिला की इज्जत बचाने की खातिर चलती ट्रेन में अकेला ही हथियारबंद 30-40 डकैतों से भिड़ गया था और वो भी महज़ एक खुकरी के बूते पर. नेपाली मूल के बिष्णु को बहादुरी के लिए सेना मेडल और उत्तम जीवन रक्षा पदक से सम्मानित किया गया था. हैरानी की बात है कि शुरू में तो उसको ही लुटेरों का साथी समझ लिया गया था. खुद बिष्णु ने तब कहा था कि अगर भारतीय और नेपाली मीडिया ने असलियत उजागर न की होती और वो युवती आगे न आई होती तो वो खुद किसी जेल में पड़ा होता.
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युद्ध में दुश्मन से लड़ना उसकी सैनिक के तौर पर ड्यूटी है लेकिन ट्रेन में डाकुओं से भिड़ना उसका इंसानी कर्तव्य है.
घटना ऐसे घटी :
किसी फ़िल्मी कहानी सी ये घटना सितम्बर 2010 की है. आठवीं गोरखा राइफल्स की 7 वीं बटालियन का ये जवान बिष्णु गोरखपुर से रांची जाने के लिए मौर्या एक्सप्रेस में यात्रा कर रहा था. उस वक्त वो ऊपर वाली बर्थ पर सोया हुआ था तभी शोर सुनकर उसकी नींद टूटी. दरअसल शोर 18 साल की उस युवती ने मचाया जिसकी अस्मत ट्रेन में लूटपाट कर रहे डाकू लूटना चाहते थे. उससे पहले वो यात्रियों से नकदी, जेवर और कीमती सामान लूट चुके थे. बिष्णु से ये बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने अपनी खुकरी निकाली और अकेले ही डाकुओं से भिड़ गया. तीन को तो उसने बुरी तरह घायल कर ही डाला और खुकरी की धार कुछ और को भी मज़ा चखा ही रही थी कि इस बीच किसी डाकू ने फायर भी किया लेकिन किस्मत अच्छी थी कि बिष्णु को गोली नहीं लगी लेकिन इस दौरान उसके हाथ से खुकरी छूट कर गिर भी गई थी. डाकुओं ने बिष्णु को भी चोटिल तो कर ही डाला था. उसके जिस्म से भी बुरी तरह खून बह रहा था लेकिन हैरानी की बात है कि कोई यात्री डाकुओं से सामना कर रहे बिष्णु का साथ देने आगे भी नहीं आया. उसकी बायीं बाजू का ज़ख्म भरने में ही दो महीने लग गये थे. बिष्णु इस मामले में मीडिया के रोल का बहुत अहसान मानता है जिसने उसकी कहानी दुनिया के सामने रखी और उसको हीरो बना डाला.
कौन है बिष्णु :
नेपाल के पश्चिमी हिस्से के पर्बत जिले के बच्छहा देउराली खोला में 1975 में पैदा हुए बिष्णु का परिवार गुरुंग बिरादरी से ताल्लुक रखता है. इसी इलाके के लोगों की ब्रिटिश और भारतीय गुरखा रेजिमेंट में बहुतायत है. भारतीय गुरखा रेजिमेंट में भर्ती होने के बाद वो और उसका परिवार पोखरा आ गया था.
बिष्णु की सोच :
बिष्णु बताता है कि जिस युवती की उसने इज्जत बचाई, उसके परिवार ने ख़ुशी और सम्मान के साथ उसे अच्छी खासी रकम देनी चाही थी जिसे लेने से उसने मना करते हुए कहा था कि युद्ध में दुश्मन से लड़ना उसकी सैनिक के तौर पर ड्यूटी है लेकिन ट्रेन में डाकुओं से भिड़ना उसका इंसानी कर्तव्य है.
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