वरिष्ठ पत्रकार आलोक कुमार को हाल ही में एक ऐसे शख्स से मिलने का मौका मिला जिसने उन्हें अलग नज़रिए से परिस्थितियों का आकलन करने और उसके बारे में लिखने को विवश किया. टॉल मोउर नामक इस जवान से मिलकर उन्हें जो अनुभव हुआ उसे साझा करने से आलोक अपने को रोक नहीं पाए. उन्होंने बातचीत और भावों से जो समझा उसे अपने फेसबुक वाल पर शेयर किया. यह सिर्फ वाकया भर नहीं है बल्कि इसमें सबके लिये एक संदेश और प्रेरणा छिपी हुई है. हम भी एक सैनिक टॉल मोउर के आत्मविश्वास को सलाम करते हैं और उसके आत्मविश्वास को, उसके स्वाभिमान को, उसकी निश्चिंतता को आप सबसे साझा करते हैं.
- आत्मविश्वासी-स्वाभिमानी होने का गुरुर
टॉल मोउर. तेल अवीव का रहने वाला है. इजराइल से आया है. छुट्टी मनाली में बिताएगा. दो महीने भारत में रहेगा. साथ में कोई सामान नहीं. पूछने पर सहयात्री ने कहा, जरूरत का हर सामान जरूरत वाली जगह पर मिल जाया करता है. उसे ढोने की क्या जरूरत. दिलचस्प लगा. कुल्लू के सफर में मुलाकात हो गई. पिछले हफ्ते भुट्टी वीवर्स कॉपरेटिव सोसाइटी के मीडिया अवार्ड के सिलसिले में कुल्लू जा रहा था.
मुस्कान बिखेर रहे माउर के मन की कंडीशनिंग लाजवाब लगी. 20 साल की उम्र में सात देशों की सैर कर चुका है. भारत आठवां देश है. अपन विदेश के नाम पर नेपाल के सिवा कहीं और गए ही नहीं.
वह दो साल की अनिवार्य मिलिटरी ट्रेनिंग पूरी कर चुका है. तन पर बस एक नीले रंग की फटी जींस और टी शर्ट डालकर सीधे पांच हजार किलोमीटर दूर बसे देश चला आया है. उससे बातचीत में बरबस पिताजी याद आते रहे. उनका जोर सदा से आत्मविश्वासी होने पर रहा. यह मुस्कुराते टॉल में साफ झलक रही थी.
कोई गिरता. पिताजी गर देख लेते, तो सबसे पहले दौड़ पड़ते. उठाते, उसे सम्हालते-बचाते. खड़े होने में मदद करते, हौसला बंधाते. रोने से रोकते. आंसू नहीं टपकने देते.
उनको ओस की बूंदे पसंद थी. टॉल मोउर से उसके नाम का मतलब पूछा, तो कहा कि हिब्रू में टॉल का मतलब शबनम यानी ओस होता है. मोउर सुबह की आभा को कहते हैं. मोउर उसका सरनेम है. पिताजी को सुबह की ओस पसंद थी. नंगे पैर घास पर टहलना अच्छा लगता. कहते, सूर्योदय से पहले तक ओस की बूंदे सेहत के लिए अच्छी होती है. तलवे में लगने वाली ओस आंख की रोशनी को खराब होने से सम्भालती है.
अपने हीरो को हमने गिर पड़े बच्चे को धरती मां पर किसी इल्जाम के सहारे रोने से चुप कराते नहीं देखा. लोग अक्सर रोते बच्चे को यह कहकर चुप कराते हैं कि ओहो, धरती मां ने गिरा दिया है. लो, देखो गिराने वाली धरती मां को दो चपत मारते हैं. अब चुप हो जाओ.
उनको ये अच्छा नहीं लगता. कहा करते धरती किसी को गिराती नहीं, सम्भालती है. चलना सिखाती है, उस पर ही जन्म के साथ यह इल्जाम लगाने की बात क्यों सिखायी जाती है ? इस सीख का विस्तार होता चला जाता है. अपने यहां अक्सर खुद की खामी किसी औऱ के सिर पर मढते हैं. इल्जाम लगाने के नित नए बहाने तलाशने का एक से बढकर एक तरकीब चलती रहती है.
बिना किसी सामान के लंबे सफर पर अकेले निकला टॉल मोउर प्रभावित करता रहा. उसे जानने की उत्सुकता बढती रही. आत्मविश्वास से भरे टॉल के मुखमंडल पर अजनबी होने का कोई बोध नहीं. ऐसा लग रहा था कि पूरी दुनिया को अपना ही घर मान रहा. वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा से तर.
एयरपोर्ट से ऑटो लेकर सीधे बस के लिए मंजनू का टीला पहुंचा था. संवाद का कोई सपोर्ट सिस्टम उसके साथ नहीं था. कोई कागज नहीं, कोई पर्ची नहीं. कोई किताब नहीं. बस मन में बसा मैप और याद में जरुरत के जगहों के नाम थे. हां, एक स्मार्टफोन था, जो बंद था. जिसमें सिर्फ व्हाट्सअप काम कर सकता. कैशलेस ही नहीं पूरी तरह सामानलेस था. बेहद किफायती लगा.
हिंदी बिल्कुल नहीं जानता, बोलचाल की टूटी फूटी अंग्रेजी से काम चलाने लगा. बताया कि उसकी मां जर्मन औऱ पिता फ्रांस के हैं. इजराइल में हिब्रू अनिवार्य है. थोड़ी बहुत जर्मनी और फ्रेंच जानता है. अंग्रेजी सबसे कम. मेरे बगल की सीट पर अटपटी अंग्रेजी में कुछ बोलता हुआ मुस्कुराकर बैठ गया.
बातचीत टूटी फूटी अंग्रेजी में शुरु हुई. संवाद नजरों की भाषा से अधिक हुआ. हम दोनो एक ही बात को कई कई तरीके से कहते और एकदूसरे को समझाते रहे. एकबार उसने कहा कि यहां सड़क पर दौडने वाली गाडियां इतना हार्न क्यों बजाती हैं. उसके यहां तो वाहन चालक ऐसी आवाज बेहद मुश्किल घड़ी वाली इमरजेंसी में करते हैं. मैं निरुत्तर था, लज्जित होना स्वाभाविक था. मैंने जता दिया कि उसका कहा समझा ही नहीं.
मोउर ने बताया कि उसके यहां बच्चों के लिए हाईस्कूल के बाद दो साल की मिलिटरी ट्रेनिंग अनिवार्य है. ट्रेनिंग से हर इजरायली नागरिक को दक्ष बना दिया जाता है. उसके बाद ही क़ॉलेज में दाखिला होता है. सरकार इतना पैसा देने लगती है कि अनुशासित रहकर आप मन की कर सकते हो. सरकार औऱ इजराइल के लोग समान रुप से दायित्व को महत्व देते हैं. हर अनहोनी होनी के पीछे खुद को वजह मानकर जीते हैं. शौर्य से हालात सम्हाल लेने का हुनर पैदा करते हैं.
वह अपने यहां बच्चों को दिए जाने वाले संस्कार के बारे में बताने लगा. पहला संस्कार आत्मविश्वास दिलाने का होता है. जब बच्चा मां की गोद से उतरकर थई थई चलने लगता है, तो समुदाय के लोग को पार्टी दी जाती है. परिजन इकट्ठा होते हैं. नन्हे बच्चे को बड़े समुदायिक हॉल के मध्य में छोड़ दिया जाता है. दरवाजे बंद कर दिये जाते. दरवाजे की ओट से बच्चे को अजीज आवाज लगाते हैं. वह रोता बिलखता बाहर निकलने को आतुर होता है. दस से बीस मीटर दूर दरवाजे की तरफ बढता है. गिरता-पड़ता है. चोट लगती रहती है. कोई मदद के लिए नहीं आता. आखिर में उसे खुद ही अपनी लड़ाई जीतनी पडती है. जब दरवाजे तक पहुंच जाता है, तो गोद में उठाकर जीत का जश्न मनाया जाता है.
जब टॉल बच्चे को इजराइल में आत्मविश्वासी बनाने वाले संस्कार की बात कर रहा था, तो मुझे अपने यहां के नन्हे मुन्ने बच्चे याद आते रहे, जो उस उम्र में लार-पोंटा से तर रहते हैं. हाथ पैर पटकते बड़ो पर चीख चिल्ला रहा होता है कि उसकी फलां मदद नहीं की. चिलां बात नहीं मानी. उसे ये नहीं दिया. वो नहीं दिया.
यही फर्क है, जो मोउर को बिना किसी सामान के दुनिया की सैर पर निकल जाने की हिम्मत देता है. किसी होनी अनहोनी के पीछे खुद को जिम्मेदार मान लेने की प्रवृत्ति उसमें पैदा करता है. अपने यहां बचपन से ही गिरने पड़ने जैसी सामान्य सी बात के लिए भी धरती मां पर इल्जाम मढने के बहाने बना लेना सिखाया जाता है.
भारतीय एयरफोर्स में लंबी सेवा दे चुके अपने सुपर हीरो से मैंने येरुसेलम, तेल अवीव, फिलस्तीन, बेरुत-लेबनान, इस्तामबुल- सीरिया और ईरान की राजधानी तेहरान के यात्रा वृतांत की ढेरों कहानी सुन रखी हैं. मुस्तफा कमाल पाशा के बारे में सुना है.
वो बताते रहे कि साठ के दशक तक पश्चिम एशिया के इन देशों में बसने वाले लोग बेहद सुंदर और खूबसूरत इंसानों में शुमार थे. लेकिन न जाने इनकी आजादी को कैसे ग्रहण लग गया, किसकी नजर लग गई. लड़ाई झगडे का सिलसिला शुरु हो गया. ये इलाका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद महाशक्तियों की जोर आजमाई का मैदान बन गया. टॉल मोउर से मिलकर लगा कि आज भी इनके पास बहुत कुछ है, जिससे हम लड़ना झगडना तो नहीं, इंसानी सभ्यता को स्वाभिमानी और आत्मविश्वासी होने का गुरुर सिखा सकते हैं.