अयोध्या नगरी में सरयू के तट पर दीपोत्सव बड़ा ही मनोहारी दृश्य पेश करता है. दूर दराज़ से लोग इन पलों का गवाह बनने आते है और राम जन्मभूमि से लौटते समय उनकी यादों में दीपोत्सव की तस्वीरों की ख़ास जगह बनी रहती है . दीपोत्सव के दौरान राम की इस नगरी में तीर्थयात्रियों व श्रद्धालुओं की भीड़ तथा कानून व्यवस्था के हालात बनाए रखने के लिए पुलिस को चप्पे चप्पे पर नजर रखनी पड़ती है . इसी तरह के बन्दोबस्त करने और करवाने में पुलिस चौकी प्रभारी के तौर पर सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव की अहम ज़िम्मेदारी हुआ करती थी . तब बार बार रंजीत यादव की नजर वहां आसपास मंडराते भिखारियों और उनके बच्चों पर पडती थी जो हमेशा हाथ फैलाए लोगों से मिन्नत करते रहते थे. यह बच्चे रंजीत यादव की चिंता का कारण बनते जा रहे थे. इन बच्चों का वहां होना रंजीत यादव एक पुलिसकर्मी के ही तौर पर ही सिर्फ इसलिए नहीं खटक रहा था कि भिक्षावृत्ति करना या करवाना एक अपराध है बल्कि उनकी चिंता यह थी कि इन छोटे छोटे बच्चों का भविष्य कैसा होगा ? उनकी संवेदनशीलता और समझदारी कहती थी कि इन बच्चों को तो पढ़ाई लिखाई करने के लिए स्कूल में होना चाहिए ..! फिर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है ? बस इसी सवाल के जवाब की तलाश में भिखारियों की मलिन बस्ती में पहुंचे रंजीत यादव को न सिर्फ समस्या की जड़ें पता लगीं बल्कि यहीं पर समाधान भी निकल आया .
यह ज्यादातर बच्चे अयोध्या के जयसिंह पूरा वार्ड की मलिन बस्ती में रहने वाले गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं जो भीख मांग कर गुज़ारा करते हैं . पढ़ाई – लिखाई , भविष्य , उन्नति जैसे शब्दों और उनकी संकल्पनाओं से दूर इन परिवारों के लिए जीवन का मतलब और मकसद बस किसी तरह लोगों से भीख मांगकर अपनी ज़रूरत पूरी करना भर दिखाई दिया . हाँ इनमें 2 -3 अपवाद ऐसे ज़रूर थे जिन्होंने शिक्षा पाने के लिए पास के ही स्कूल में दाखिला लिया लेकिन परिवार की पृष्ठभूमि का साया और लोगों की सोच एक अड़चन बन गई . स्कूल में इन बच्चों के सहपाठी उन्हें भिखारी कहकर चिढ़ाते थे. उनके अभिभावक भी पसंद नहीं करते थे कि उनके बच्चों की संगत भीख मांगने वालों या उनके बच्चों से हो . लिहाज़ा उन बच्चों का स्कूल छूट गया.
सीनियर छात्रों से किताबें मांगकर पढ़ाई की :
आजमगढ़ के भदसार गांव के एक बेहद साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले रंजीत यादव कहते हैं कि इन बच्चों का अभावों वाला संघर्षशील जीवन देख कर उनको अपनी कुछ ऐसी बातें जहन में आईं जब उनको भी जीवन के किसी मोड़ पर अभाव का अहसास हुआ था. रंजीत यादव कहते हैं , ” मैंने आर्थिक तंगी झेली है , कई बार किताबें खरीदने के पैसे नहीं होते थे तो अपने वरिष्ठों से उनकी किताबें मांग कर पढ़ाई पूरी की है “. खुद उन परिस्थितियों का सामना कर चुके सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव ने गरीब बच्चों को अपने स्तर पर ही शिक्षित करने का मन बना लिया. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ( BHU } से दर्शनशास्त्र में एमए कर चुके रंजीत यादव का यूं भी पढ़ने पढ़ाने में मन लगता है . यह गुण उनके परिवार में ही है. उनके चार भाइयों में से एक भाई तो टीचर ही है , एक ने डॉक्टरेट की है . 2021 में रंजीत यादव के साथ परिणय सूत्र में बंधीं गरिमा यादव भी अब इसी राह पर हैं. विज्ञान की छात्रा रहीं गरिमा एमएससी ( MSc ) करने के बाद बीएड (BEd) की तैयारी कर रही हैं .
यूं की ‘ अपना स्कूल ‘ की शुरुआत :
रंजीत यादव बताते हैं कि बच्चों को पढ़ाने में तो बिलकुल दिक्कत नहीं थी.समस्या थी उनको और उनके परिवारों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए इस दिशा की तरफ ले जाना. कइयों को लगता था कि यह समय बरबाद करना है क्योंकि भीख मांगने से होने वाली ‘ आमदनी ‘ रुक जाएगी . शुरू में तो बच्चे ही तैयार नहीं होते थे. खैर किसी तरह कुछ लोगों को राज़ी कर लिया . दरी , बोर्ड , स्लेट , चाक , कॉपी , किताब ,पेंसिल आदि का बन्दोबस्त रंजीत यादव ने खुद किया और बस्ती में ही खाली पड़े एक प्लाट में ही शुरू कर दिया ‘ अपना स्कूल ‘ . लेकिन शुरू शुरू में ही एक और चुनौती सामने आई , ” माँ बाप के कहने पर बच्चे वहां आ तो गए लेकिन स्लेट , कॉपी आदि बांटे जाने के बाद कई तो लौटे ही नहीं “. उनको भी समझा बुझाकर वापस लाया गया . क्योंकि इन बच्चों ने अपने परिवारों में किसी को पढ़ाई करते देखा ही नहीं और साथ ही इनकी प्रवृत्ति में इधर उधर भटकते रहना , भीख मांगना इस कदर हावी हो गया था कि एक स्थान पर टिक कर बैठना , सुनना , समझना व सीखना इनको विचलित करता था. वो शरारत करते थे . इस वजह से उनको अनुशासित करना मुश्किल होता था. रंजीत यादव बताते हैं कि इसके लिए कभी कभार उनको डांटना डपटना तो क्या डराना और ज़ोर ज़बरदस्ती का भी सहारा लेना पड़ता था .
इस तरह साथी जुडे :
‘अपना स्कूल ‘ को नवंबर 2021 में अपने सफर के शुरूआती कुछ महीनों के बाद सही चाल मिल गई. हालांकि इस बीच वो जगह बदलनी पड़ी जहां बच्चे पढ़ने के लिए इकट्ठा होते थे. जिसकी ज़मीन ने उसने वहां कुछ निर्माण करना था. फिलहाल वहीँ पास में खुले मैदान में पेड़ की साये में यह स्कूल चलता है. यहां 4 से 14 साल के तकरीबन 70 बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दी जाती है. यही नहीं उनको कॉपी , किताब आदि तमाम सामग्री भी फ्री में उपलब्ध कराई जाती है . सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव को , गरीब व ज़रूरतमंद बच्चों को पढ़ाने के इस काम में , ऋषभ शर्मा और अंशिका सिंह भी मदद कर रहे हैं जो खुद कॉलेज के विद्यार्थी हैं . इन बच्चों की पढ़ाई ही सिर्फ नहीं उनके स्वास्थ्य , सफाई और उनकी आदतों पर भी नज़र रखी जाती है. उनके परिवारों को अपने घर में साफ़ सुथरा माहौल रखने और खान पान को लेकर भी जागरूक किया जाता है. इसके लिए कुछ दिलचस्प और प्रतियोगितात्मक गतिविधियां भी आयोजित की जाती हैं . मसलन , एक गतिविधि के तहत तो बच्चे खुद आसपास के घरों में जाकर देखते हैं कि किसका घर सबसे साफ़ सुथरा है . इस तरह से उत्तर प्रदेश के दारोगा रंजीत यादव का शुरू किया ‘ अपना स्कूल ‘ बच्चों की ही नहीं उनके परिवार के कल्याण की दिशा में भी सहयोग कर रहा है .
कैसे बने ‘ खाकी वाले गुरु जी ‘ :
अयोध्या में ‘ अपना स्कूल ‘ ने जहां कुछेक बच्चों और परिवारों की दशा में परिवर्तन की तरफ कदम बढ़ाया है वहीँ इसके संस्थापक सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव को अलग पहचान भी मिली है . पुलिस की वर्दी पहने हुए , एक हाथ में चाक तो दूसरे में स्टिक थामकर पढ़ाने वाले , सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव को लोग ‘ खाकी वाले गुरूजी ‘ के नाम से पुकारने लगे हैं . पढ़ाते वक्त रंजीत यादव का अपनी वर्दी पहने रहना एक मजबूरी भी है या यूं कहें कि इसके पीछे एक व्यवहारिक कारण है . यह उनका इस काम के प्रति समर्पण भाव भी दर्शाता है . दरअसल जिस मलिन बस्ती जयसिंह पूरा वार्ड में सब इंस्पेक्टर रंजीत सिंह ‘ अपना स्कूल ‘ चलाते हैं वह उनके घर से लगभग 10 किलोमीटर है. क्योंकि स्कूल का 2 घंटे समय यानि सुबह 7 से 9 बजे है और फिर रंजीत यादव को अपनी ड्यूटी पर भी जाना होता है इसलिए उनके लिए स्कूल से वापस घर लौटकर ऑफिस में पर समय पर पहुँच पाना संभव नहीं हो पाता. रंजीत यादव कहते हैं कि वह सुबह 6 बजे तैयार होकर स्कूल के लिए निकल जाते हैं और फिर वहीं से ऑफिस .
लोग खुद मदद को आगे आए :
गरीब व ज़रूरतमंद बच्चों व लोगों की मदद करने के जज्बे के कारण सब इंस्पेक्टर से ‘ खाकी वाले गुरु जी ‘ बने रंजीत यादव मात्र डेढ़ साल के अरसे में इतने चर्चित हो गए हैं कि उनको कुछ संस्थाओं ने औपचारिक सम्मान समरोहों में सम्मानित करना शुरू कर दिया है . खुद पुलिस विभाग के उनके साथी भी उनके प्रति विशेष सम्मान रखते हैं और वरिष्ठ अधिकारी भी सराहना करते हैं . भिक्षा वृत्ति में लिप्त बच्चों को शिक्षित करके उन्हें समाज की मुख्याधारा से जोड़ने के लिए सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव कोन ब्रह्मानन्द पुरस्कार 2023 से सम्मानित करने का हाल ही में ऐलान किया गया है . रंजीत यादव बताते हैं कि उनको बाल शिक्षा व कल्याण के इस काम में शुरू से ही समाज के लोगों ने मदद की. खासतौर से शिक्षा के लिए सामग्री का बंदोबस्त करने में . इसका दिलचस्प किस्सा बताते है , ‘ शुरुआत में जब फ़ैजाबाद के बाज़ार में स्टेशनरी वालों से स्लेट , चाक , कापियां खरीदने गए तो लगभग 1100 रूपये का बिल बना कर दुकानदार ने पर्ची दी. साथ ही उसने कौतुहलवश पूछ लिया कि दारोगा जी इस सामान का क्या करोगे ? जब दुकानदार को पता चला कि यह सामान गरीब बच्चों की फ्री शिक्षा में मदद के लिए है तो उसने मेरे हाथ से बिल वापस लेकर अपने गल्ले में डाल लिया और सामान के बदले एक रुपया नहीं लिया “.
एक सपना टूटा तो दूसरा बुना :
समाज के सबसे मजबूर और निचले पायदान वाले हिस्से से जुड़कर उनके कल्याण के लिए काम कर रहे सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव का अपना करियर भी चुनौतीपूर्ण रहा है . मामूली से किसान परिवार के पांच बेटों में से मझौले रंजीत यादव फौजी अधिकारी बनना चाहते थे. एनडीए की परीक्षा का प्रयास नाकाम रहा लेकिन पढ़ाई जारी रखी. जब ग्रेजुएशन कर चुके और 2011 में एम ए कर रहे थे तब आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा था. ऐसे में किसी भी तरह की सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा देने का सिलसिला शुरू हुआ. इसी बीच उत्तर प्रदेश पुलिस में सिपाहियों के पद पर भर्ती निकली लिहाज़ा उसका भी आवेदन कर डाला. यह परीक्षा उन्होंने पास भी कर ली और उनकी ट्रेनिंग भी शुरू हो गई. क्योंकि अपनी काबिलियत के बूते देखे गए सपने अधूरे लग रहे थे इसलिए उनको पूरा करने का जूनून भी रंजीत यादव में था. कांस्टेबल की ट्रेनिंग करते करते ही उन्होंने सब इंस्पेक्टर की परीक्षा भी दे दी. इसमें सफल तो हुए लेकिन विवाद के कारण कानूनी पचड़ों में मामला ऐसा फंसा कि रिजल्ट पर अमल नहीं हुआ . मामला अदालत में चला गया. ऐसे में फैसला आने तक सिपाही के तौर पर काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था. पढ़ाई भी करनी थी. खैर 2015 में लखनऊ हाई कोर्ट का फैसला आया और रंजीत सिंह का 2011 में दी गई परीक्षा के नतीजे के बूते पर उप निरीक्षक(sub inspector ) के तौर पर सलेक्शन हुआ और फिर ट्रेनिंग भी हुई.
सब इंस्पेक्टर ( एस आई ) बनने के बाद से बीते सात साल से अयोध्या में अलग अलग स्थानों पर तैनाती के दौरान रंजीत यादव ने कई अनुभव लिए हैं लेकिन उन्होंने ज़यादातर समय जनता के बीच ही गुज़ारा है . रंजीत यादव का कहना है कि पुलिस की कुछ क्रूरतापूर्ण गतिविधियों या नकारात्मक घटनाओं का समाज में इतना प्रचार हो जाता है कि समस्त पुलिस विभाग की वही छवि समाज में बनी रहती है . रंजीत यादव के परिवार कुनबे में उनसे पहले कोई पुलिस में नहीं था . पुलिस के बारे में वह खुद इस तरह की बात महसूस करते थे . दरअसल , भारत में जिस तरह के सीमित संसाधनों और विभिन्न प्रकार के दबावों के बीच पुलिस को काम करना पड़ता है उसकी असलियत उन लोगों को पता ही नहीं होती जो खुद कभी उससे जुड़े न रहे हों . रंजीत यादव अभी अयोध्या परिक्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय में तैनात हैं .
पुलिस और समाज में शानदार मिसाल :
सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव का काम न सिर्फ शिक्षा और समाज कल्याण के क्षेत्र में सराहनीय योगदान है बल्कि उनके जैसे लोग समाज में पुलिस की छवि को बेहतर करने में भी सहयोग देते हैं . रंजीत तो अपने निजी जीवन में भी साम्प्रदायिक सौहार्द और मोहब्बत की मिसाल पेश करते हैं. वह पांच भाई हैं लेकिन उनकी सगी बहन नहीं है लेकिन मवई की रहने वाली उनकी मूंह बोली शबीना खातून ने उनके जीवन की इस कमी को पूरा किया है. ‘ खाकी वाले गुरु जी ‘ को शबीना खातून बीते पांच साल साल से राखी बांधती हैं . इस बार भी 65 किलोमीटर का सफर तय करके अयोध्या में महानिरीक्षक कार्यालय में आकर शबीना ने सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव को 30 अगस्त को रक्षाबंधन पर कलाई में राखी बांधी .
अब संस्थागत तरीका अपनाएंगे :
पूरा समय ड्यूटी और पुलिस के काम के तमाम दबावों के बावजूद ज़रुरतमंद बच्चों के लिए रोजाना समय निकालना बेशक रंजीत यादव के निजी जीवन के आराम को प्रभावित करता है लेकिन इस काम से मिलने वाली संतुष्टि का भाव काफी तरह के साइड इफेक्ट्स को हावी होने से रोक देता है . 34 वर्षीय सब इंस्पेक्टर रंजीत यादव अब इस शिक्षा यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए इसे संस्थागत रूप देने की सोच रहे हैं ताकि किसी भी तरह की उनकी अनुपस्थिति में भी , सरयू के तट पर शुरू हुई शिक्षा की यह धारा अविरल बहती रहे ताकि समाज के वंचित तबके के परिवारों के नन्हें पौधों को सींचती रहे .