जम्मू कश्मीर पुलिस से बतौर सहायक सब इंस्पेक्टर रिटायर हुए गुलाम मोहि-उद-दीन ने अपनी खाकी वर्दी बेशक खूंटी पर टांग दी है लेकिन लेकिन इनकी खुद्दारी और जुनून को इनका आराम करना गंवारा नहीं. तीन दशक से ज्यादा वक्त तक थ्री नॉट थ्री सम्भालते रहे गुलाम मोहि-उद-दीन के हाथों की पकड आज 63 वें साल में भी इतनी मज़बूत है कि चिकनी खाल वाली ट्राउट मछली भी बेबस हो जाए. नौकरी से रिटायर होने पर बेबसी की ज़िन्दगी जीने वाले या नया करने की इच्छा या अपने सपनों की हत्या करने वाले तमाम वरिष्ठ नागरिकों (senior citizen) के लिए इस कश्मीरी साधारण से ग्रामीण की जिंदगी प्रेरणा है.
पुलवामा ज़िले के मलिकपोरा गांव के निवासी गुलाम मोहि-उद-दीन ने जिंदगी की शुरुआत एक गरीब परिवार में पैदा हुए पहले लडके के तौर पर की थी. दसवीं तक पढ़ाई की और उसके बाद परिवार को आर्थिक तौर पर मदद करने के लिए आईआईटी से कारपेंटरी कोर्स करके फर्नीचर कारखाने में काम किया. लेकिन इससे होने वाली आमदनी काफी नहीं थी. उनसे छोटे तीन भाई और थे जो पढ़ते थे. गुलाम मोहि-उद-दीन कहते हैं कि सुनिश्चित और अपर्याप्त आय की कमी थी जो एक तरह से बेरोजगारी वाला आलम ही था. लेकिन जनवरी 84 में ‘आफताब’ अखबार में छपा एक विज्ञापन उनकी जिंदगी बदलने वाला साबित हुआ. ये जम्मू कश्मीर पुलिस में सिपाहियों की भर्ती का इश्तेहार था. गुलाम मोहि-उद-दीन बताते हैं कि उन्होंने इसके लिए आवेदन फॉर्म भरा और सलेक्ट भी कर लिए गए.
पुलवामा पुलिस अधीक्षक (sp pulwama office) कार्यालय में भर्ती हुई और जम्मू के पास कठुआ में पुलिस ट्रेनिंग स्कूल की 14 महीने की ट्रेनिंग पूरी करके मोहि-उद-दीन सिपाही बन गए. उन दिनों तक कश्मीर पर आतंकवाद की छाया नहीं थी लेकिन पंजाब में आतंकवाद चरम पर था. हालांकि तब वो अपने परिवार ही नहीं कुनबे में भी पहले नौजवान थे जिसने पुलिस की खाकी वर्दी पहनी हो. परिवार वाले उनके इस फैसले से खुश थे. भले ही मजबूरी में उन्होंने पुलिस सेवा ज्वाइन की और इसके लिए उन्हें कई दफा घर से दूर रहना पडा लेकिन इससे परिवार में खुशहाली आ गई थी. जब पुलिस में भर्ती हुए तब तक उनकी शादी को दो साल हो चुके थे लेकिन तब तक उनकी कोई संतान नहीं थी. पुलिस में सारा करियर क़ानून व्यवस्था की स्थिति संभालने की ड्यूटी में बीता. हालांकि पुलिस सेवा में कोई बड़ी उपलब्धि तो हासिल नहीं कर पाए लेकिन ईमानदारी, मेहनत, लगन और उनका जोश उनको सिपाही से एएसआई रैंक तक ले गया.
यूं देखा और साकार किया सपना :
गुलाम मोहि-उद-दीन ने करीब तीन दशक तो आतंकवाद के बीच काम किया. एक बार तो सोपोर में आतंकवादी हमले में बाल बाल बचे भी. जम्मू कश्मीर पुलिस की जिस बस में वे अन्य सिपाहियों के साथ जा रहे थे उस पर आतंकवादियों ने एके 47 असॉल्ट राइफलों से गोलियों की बौछार कर डाली थी. सिपाही पुरानी थ्री नॉट थ्री राइफलों के साथ सफर कर रहे थे. उस समय उनके पास बस के भीतर ही झुक कर अपनी जान बचाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. जब तक सम्भले और पोजीशन लेकर जवाबी हमला किया तक आतंकवादी भाग खड़े हुए. इसमें किसी तरह का जानी नुक्सान नहीं हुआ था. 2003 में हवलदार (head constable) और फिर 2019 में रिटायर होने से 6 महीने पहले एएसआई बने लेकिन इस बीच अपने बेटे और बेटी की शादी करके पिता की पारिवारिक जिम्मेदारियां भी पूरी कर दीं. हालांकि घर की खेतीबाड़ी के अलावा सेब का बाग़ भी है. भले ही पेंशन न मिलती हो लेकिन गुज़ारा चल जाता था. फिर भी अपने जीवन को और बेहतर करने और आत्मनिर्भर बने रहने के स्वभाव के गुलाम मोहि-उद-दीन को सपना पूरा करने का मौक़ा दिया. ये सपना उन्होंने कई साल पहले अच्छबल और कोकरनाग में अपनी तैनाती के दौरान देखा था. ये था ट्राउट मछली का अपना फ़ार्म बनाना. ट्राउट, ठंडे और ताज़े पानी की एक ऐसी मछली है जिसकी गिनती भारत में महंगी और स्वाद में लज़ीज़ नस्ल की मछलियों में होती है.
हमेशा नया करते रहने का जुनून :
अपने गांव में खेत के एक छोटे टुकड़े में उन्होंने ट्राउट मछली पालने की योजना बनाई. मत्स्य विभाग के कोकरनाग स्थित केंद्र में तीन दिन की ट्रेनिंग ली. दो लाख की लागत से फ़ार्म बनाया और उसमें भी 1 लाख 20 हज़ार रूपये बतौर सबसिडी उनको वापस भी मिले. अब इस फार्म से उनकी 3 से 4 लाख की सालाना अतिरिक्त आय हो जाती है. मछली पालन के मैदान में उतरे गुलाम मोहि-उद-दीन का हमेशा नया करने का, जुनून अभी कायम है. कई साल पहले उन्होंने अपने धान के खेतों में सेब के पेड़ लगाए थे. विदेशी किस्म के ये सेबों के पेड़ ठीक ठाक आमदनी देते हैं. मछली पालन में मिली कामयाबी से उत्साहित मोहि-उद-दीन अब मुर्गी पालन की तरफ कदम बढ़ाने वाले हैं. मलिकपोरा स्थित फिश फार्म के पास ही खाली पड़े ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर मुर्गी फ़ार्म शुरू करने के प्लान पर काम कर रहे हैं. वे यहां काले मुर्गे की किस्म कडकनाथ का फ़ार्म बनाएंगे. उनका कहना है कि कड़कनाथ नस्ल के मुर्गे का गोश्त बकरे के गोश्त से भी महंगा है – 700 रूपये प्रति किलो. यही नहीं इस नस्ल की मुर्गी का एक अंडा तक 50 रूपये में बिकता है. ये अंडा भी काले रंग का होता है. उनको ये नया करने के ऐसे आइडिया कहां से आते हैं? पूछने पर इस जागरूक किसान का जवाब था कि दुनिया में क्या कुछ हो रहा है, इसकी जानकारी रखना उनकी दिलचस्पी है. वे नियम से टीवी पर न्यूज़ देखते हैं और अखबार पढ़ते हैं. खुद को कारोबार में अपडेट करने के लिए गुलाम मोहि-उद-दीन मत्स्य विभाग की तरफ से आयोजित वर्कशॉप और ट्रेनिंग कैंप में नियमित रूप से जाते हैं.