नक्सलियों के इलाके में सड़क पर जन्मी बच्ची को सीआरपीएफ ने गोद लिया , नाम रखा भारती

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नवजात भारती को उठाए हुए सीआरपीएफ के डॉ एम सम्पत कुमार

ये बात सुनकर शायद गोंड जनजाति के इस परिवार  को भी अटपटा लगा  होगा जब  छत्तीसगढ़ में  केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल ( central reserve police force ) के जवानों ने उनकी बच्ची का नाम रखा . यही नहीं भारती की ज़रूरतों को पूरा करने और उसके उज्ज्वल के भविष्य के लिए बहुत कुछ करने की ज़िम्मेदारी भी सीआरपीएफ की वह यूनिट उठाएगी जिसके प्रयासों से से इस नन्हीं सी जान का , तमाम चुनौतियों के बावजूद , इस संसार में  आ पाना संभव हो पाया. एक तरह से सीआरपीएफ ने भारती की  ज़िम्मेदारी वैसे ही ले ली है जैसे कोई परिवार गोद लेता है .

भारत के नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में जिन चुनौतीपूर्ण हालात में अपने परिवार की इस पहली बच्ची का जन्म हुआ उनकी कल्पना शहरी क्षेत्रों में सुविधाओं में रहने वाले शायद कल्पना भी नहीं कर सकते . हालांकि ऐसे हालात कोई पहली बार सामने नहीं आए हैं . सुदूर पहाड़ी या वन क्षेत्रों वाले उन इलाकों से ऐसी घटनाओं की  खबरे पहली भी आती रहीं हैं जहां मानवीय जीवन जीने के लिए और सामान्य तौर पर रहने के लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं .
बच्ची के जन्म से कुछ देर पहले सुबह सुबह जब महिला लेखम जोगी  को प्रसव पीड़ा हुई तब वहां उनके गांव पेद्दागेलूर में ऐसा कुछ इंतजाम नहीं था जिससे सुरक्षित प्रसव कराया जा सके. लिहाज़ा डॉक्टर की मदद की ज़रूरत पड़ी.  अस्पताल , डिस्पेंसरी या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जैसी मूलभूत  मेडिकल सुविधा कम से कम 8 से दस किलोमीटर के फासले पर थी . परिवार के 2-3 लोगों ने महिला की चारपाई को रस्सी की मदद से  बांस पर झूले की  लटकाया और  लेकर चल पड़े. उनके पास वाहन का कोई बन्दोबस्त नहीं था और सरकारी परिवहन तो इस नक्सल प्रभावित अंदरूनी इलाके में  है ही न के बराबर .  तय हुआ कि इसी तरह महिला को चारपाई पर लिटाकर और उसे लटकाते हुए कुछ किलोमीटर के दासले पर मुख्य सड़क तक ले जाया जाए जहां से किसी वाहन का बन्दोबस्त हो सके .

अभी यह लोग चारपाई पर लेटी  लेखम जोगी  को लेकर बमुश्किल एक डेढ़  किलोमीटर भी नहीं चले होंगे कि प्रसव पीड़ा और बढ़ गई . तब किसी ने रास्ते में पड़ने वाले सीआरपीएफ के  चिन्नागेलुर कैम्प में खबर दी. यह दरअसल एक एफओबी (forward operating base ऑपरेटिंग अग्रिम परिचालन बेस ) जिसमें  सीआरपीएफ 153 बटालियन  ( crpf 153 bn ) की फ़ोर्स है. सूचना मिलने पर  कैम्प से डॉ एम् सम्पत कुमार अपने साथी के साथ वहां पहुंचे जहां  से प्रसूता लेखम जोगी को ले  जाया जा रहा था. पहले तय किया गया कि महिला को कैम्प के भीतर ही ले  आया जाए  लेकिन  डॉक्टर सम्पत  ने जब जांच की तो इस बात का स्पष्ट अंदाजा हो गया कि प्रसव तुरंत कराना होगा. यदि नहीं कराया गया तो गर्भवती और उसके होने वाले बच्चे , दोनों की ही जान खतरे में पड़ सकती है .

अपनी टीम के साथ ग्रामीणों की स्वास्थ्य जाँच और उपचार करते डॉ सम्पत

 

डॉ सम्पत ( dr m sampat kumar )  कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि वह खुद महिला और उसके साथ आए लोगों की भाषा नहीं समझ पा रहे थे. न ही तब वहां पर उनका कोई सहकर्मी ऐसा था जो उनकी भाषा ठीक से समझ पा रहा हो.  यह परिवार संभवत गोंड जनजाति से ताल्लुक रखता था . वह गोंडी भाषा बोल रहे थे . महिला की उम्र 21 साल के आसपास लगती थी .  देखने में बहुत कमजोर थी और अनेमिक ( शरीर में खून की कमी से ग्रस्त ) भी लग रही थी .  वह पहली बार गर्भवती हुई थी . न ही महिला के पास किसी तरह के ईलाज या स्वास्थ्य जांच आदि से जुड़े कागजात थे  जिससे उसकी मेडिकल हिस्ट्री का अंदाजा हो सके . डॉ सम्पत कहते है , ” मुझे तो लगता भी नहीं कि परिवार ने  कभी  इस महिला की कोई जाँच आदि कराई होगी या गर्भवती को दी जाने वाली आयरन आदि की टेबलेट उस महिला को दी गई होगी “. डॉ सम्पत का कहना था कि बच्चा गर्भाशय से बाहर आने को था औए ऐसे में एक एक सेकंड कीमती था लिहाज़ा इतना समय नहीं था कि गर्भवती को कहीं भी ले जाया सके. ऐसे में मजबूर होकर उस रास्ते में ही प्रसव कराने का फैसला लेना पड़ा .

महिला और उसके होने वाले बच्चे की सुरक्षा के लिए उसी चारपाई – चादर आदि उस जगह के थोड़े से हिस्से को ढका गया . यह जगह पेड़ के नीचे वाले छाया वाला स्थान था . जो भी चिकित्सा के उपलब्ध साधन थे , उनसे और अपने सहयोगी की मदद से प्रसव प्रक्रिया पूरी की गई. सीआरपीएफ की एक एम्बुलेंस भी  कुछ ही देर में पहुँच गई ताकि माँ बच्ची के स्वास्थ्य की जांच और ज़रूरतों को तुरंत पूरा किया जा सके . लेकिन इससे पहले ही सब इतने खुश और उत्साही थे कि वहीँ पर बच्ची के नामकरण और उसे गोद लेने से जुड़े  फैसले ले लिए गए . लेखम जोगी के अलावा अब भर्ती की ‘ दूसरी माँ ‘ सीआरपीएफ  भी है .

बीजापुर में सीआरपीएफ का चिन्नागेलुर कैम्प कुछ ही महीने पहले स्थापित हुई एफओबी  है जहां आसपास के गांव में रहने वालों को प्राथमिक चिकित्सा और दवाएं आदि नि शुल्क मुहैया कराई जाती है .  लेकिन लेखम का परिवार जिस गांव में रहता है वो यहां से ज्यादा दूर है और उस गांव के लोग इस कैंप से ज्यादा वाकिफ भी नहीं थे. यू आसपास के गांव से रोजाना तीन चार मरीज ईलाज के लिए यहां आते हैं . यूं तो यहां पर डॉक्टर सीआरपीएफ कर्मियों की स्वास्थ्य ज़रूरतों के दृष्टिगत तैनात किये गए हैं लेकिन सीआरपीएफ आपने सिविक एक्शन कार्यक्रम के तहत स्थानीय लोगों को भी ईलाज मुहैया कराती है . डॉ सम्पत यहां पर वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी ( एसएमओ smo) हैं .

आदिवासी क्षेत्र से आए बच्चे का उपचार करते डॉ सम्पत

कौन हैं डॉ सम्पत :
मूल रूप से तमिलनाडु के रहने वाले डॉ सम्पत ने तेलंगाना से एमबीबीएस  किया है.  इससे  पहले आतंकवाद ग्रस्त जम्मू कश्मीर और नक्सल प्रभावित गढ़ चिरौली में भी चुनौतीपूर्ण हालात का सामना करते हुए उन्होंने सीआरपीएफ में अपने साथियों की सेवा की है . तरह तरह की पेशेवराना चुनौतियां उनके सामने आती रही हैं लेकिन यह पहला मौका था जब उनको बीच रास्ते में खुले आसमान में बिना आधारभूत सुविधा के अभाव में भी  प्रसव प्रक्रिया करनी पड़ी . इसकी सफलता को लेकर   डॉ सम्पत खुश भी बहुत है . बच्ची के स्वास्थ्य को लेकर वो आश्वस्त भी दिखे . बोले , ” जन्म के समय बच्ची का वजन तक़रीबन 2.5 किलोग्राम था जोकि  अच्छा कहा जा सकता है “.

तीन बड़ी समस्याएं :
डॉ सम्पत और उनकी टीम यहां नियमित रूप से ग्रामीणों का उपचार करती  हैं साथ ही विशेष चिकित्सा शिविर भी आयोजित किये जाते  हैं . डॉ सम्पत के मुताबिक सामान्यत इस क्षेत्र में कीड़ों के काटने से होने वाले ज़ख्म या उनके प्रभाव से होने वाले बीमारी के मरीज़ काफी होते है . इसके अलावा तपेदिक ( टीबी – ट्यूबरक्लोसिस ) रोग के लक्षण  भी यहां लोगों में काफी  पाए जाते हैं .  यहां आने वाले लोगों की सबसे बड़ी तादाद और खासतौर पर बच्चे कुपोषण के शिकार मिलते हैं .