जिन लाचित बोड़फुकन को सलामी मिलती है उनके पिता कभी बंधुआ मजदूर हुआ करते थे

235
सशस्त्र सीमा बल
खडकवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में लाचित बोड़फुकन की स्मृति में स्थापित उनकी प्रतिमा.

भारतीय सरहद की रखवाली करने वाली सशस्त्र सीमा बल ( sashastra seema bal – SSB ) ने अपनी जांबाजी और सैन्य नेतृत्व क्षमता के लिए लोकप्रिय सेनानी , लाचित बोड़फुकन की याद में आयोजित कार्यक्रम के दौरान शानदार परेड का आयोजन किया. मार्च पास्ट में एसएसबी के श्वान दस्ते, महिला टुकड़ी और ब्रास बैंड ने हिस्सा लिया. ये परेड असम की राजधानी गुवाहाटी में लाचित बोड़फुकन की जयंती पर की गई. लाचित बोड़फुकन उस अहोम राज्य की सेना के चीफ कमांडर थे जो आज भारत के सीमाई प्रांत असम का हिस्सा है. असम में मुग़ल सेनाओं से लडे गए युद्ध के दौरान 1671 में हुई सराईघाट की लड़ाई (battle of saraighat) के लिए लाचित बोड़फुकन को विशेषतौर से याद किया जाता है.

पचास साल की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए लाचित बोड़फुकन (lachit borphukan) बेहद दिलचस्प किरदार और जीवट के मालिक थे जिनका जन्म 24 नवंबर 1622 को अहोम (असम) के चराईदेव में एक गरीब परिवार में हुआ. उनके पिता मोमै तामुली बोरबरुआ एक गुलाम मजदूर (बंधुआ मजदूर) थे. मात्र चार रूपये का कर्ज़ चुकाने के लिए उनको ये गुलामी करनी पड़ी थी हालांकि बाद में वे एक मंत्री भी बने. लाचित बोड़फुकन दरअसल मोमै तामुली बोरबरुआ के सबसे छोटे बेटे थे.

सशस्त्र सीमा बल
मार्च पास्ट में एसएसबी क श्वान दस्ता

असम में आक्रमण के लिए गए मुग़लों की सेना का नेतृत्व राम सिंह कर रहे थे जबकि अहोम सेना की अगुआई लाचित के पास थी. आमने सामने की ज़मीनी लड़ाई हारने के बाद राम सिंह के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने नया प्लान बनाया. ढाका से ब्रह्मपुत्र नदी पार करने के लिए विशाल नावों पर 30 हज़ार पैदल सैनिक, 15 हज़ार तीरंदाज़, 18 हज़ार घुड़सवार, 5 हज़ार तोपची और 1000 तोपें इस आक्रमण के लिए भेजे गए. ये माना जाता है कि इस लड़ाई के पहले चरण में ही बुरी तरह हारने के बाद मुग़ल सेना ने लाचित को बदनाम करके सेना में उनकी छवि खराब करके सेना का मनोबल तोड़ने का हथकंडा भी अपनाया. राम सिंह की तरफ से लिखा गया एक पत्र तीर के साथ अहोम सेना के कैम्प में छोड़ा गया जो अंतत: अहोम के राजा चक्रध्वज सिंघा के पास भी पहुंच गया. पत्र में लिखा था कि लाचित को गुवाहाटी छोड़ने के लिए एक लाख रूपये दिए गए हैं. मकसद था राजा के मन में लाचित बोड़बरुआ की निष्ठा और देशभक्ति को लेकर संदेह पैदा करना. इस युद्ध के साल भर बाद बीमारी के कारण 25 अप्रैल 1622 को लाचित बोड़फुकन का जोरहाट में देहावसान हो गया था.

लाचित बोड़फुकन की स्मृति में खडकवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (नेशनल डिफेन्स अकेडमी – NDA) में उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई है. एनडीए की पासिंग आउट परेड में 1999 से लेकर हर साल बेस्ट कैडेट को लाचित बोड़फुकन गोल्ड मेडल ( lachit borphukan gold medal ) से सम्मानित किया जाता है. लाचित बोड़फुकन की यादगारें भी बनाई गई हैं और उनको समर्पित कई अवार्ड के भी नाम रखे गए है.