सूर्यास्त के बाद करमडीह और खामिखाम गाँव के उन गरीब आदिवासियों की ज़िन्दगी ही मानो सो जाती थी. न तो घर में चहल पहल और न ही कामकाज. नींद आई हो या न आई हो, सो जाना उनकी मजबूरी थी. वजह थी घर में रोशनी का किसी तरह का बन्दोबस्त न होना. अँधेरा हो जाने पर करें तो क्या करें? रोशनी के लिए अगर कोई सहारा था तो सिर्फ चाँद. दूसरी तरफ चंद ही मीटर के फासले पर स्थापित केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) के कैम्प का बिलकुल अलग नज़ारा था. यहाँ रात भी गुलज़ार थी. दिन जैसी भरपूर रोशनी के बीच जवान हर वो कामकाज कर रहे थे जो उन्हें करने की ज़रूरत महसूस होती थी.
लेकिन रात का अन्धेरा जीवन चक्र ही रोक देता था
सीआरपीएफ के यहाँ आने और 112 वीं बटालियन का कैम्प बनने के बाद झारखण्ड के लातेहार जिले के इन दोनों गांवों और आसपास के इलाके में आदिवासियों के बीच नक्सलियों का खौफ तो कम ज़रूर हुआ था और ज़िन्दगी में अच्छे बदलाव भी आये लेकिन रात का अन्धेरा जीवन चक्र रोक ही देता था. पिछले हफ्ते, यानि 17 अगस्त को सीआरपीएफ के महानिरीक्षक (झारखण्ड सेक्टर) संजय आनंदराव लाठकर का यहाँ आना और इनके हालात जानने के बाद एक छोटी सी पहल करना, इन आदिवासियों के जीवन में बड़ा बदलाव ले आया.
भारतीय पुलिस सेवा के झारखण्ड कैडर के 1995 बैच के अधिकारी संजय आनंदराव लाठकर ने रक्षकन्यूज़ डाट काम से बातचीत के दौरान कहा, ‘उन आदिवासियों का अँधेरे और उदासी वाले माहौल में रहना और हमारे कैम्प में चहल पहल, अटपटा लगता था. इस पहलू पर चर्चा करने और वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत के बाद हमने उन घरों तक बिजली पहुँचाने का निर्णय लिया.’
एक सप्ताह के अंदर ही 112 बटालियन ने बिजली की अस्थायी लाइन बिछा दी
एक सप्ताह के अंदर ही 112 बटालियन ने उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए बिजली की अस्थायी लाइन बिछा दी तथा उपलब्ध जनरेटर से एलईडी बल्ब जलाकर कैंप के बाहर करमडीह तथा खामीखाम गांव के 10 घरों को जगमगा दिया. सबसे दूर घर 200 मीटर की फासले पर था और इस कोशिश से लगभग 60 ग्रामीणों को बिजली मयस्सर हुई. जिन घरों के कामकाज, पहले दिन छिपते ही बंद हो जाते थे, वह अब गतिविधियों से जीवंत हो गए. अधिकारी कहते हैं कि घरों तक बिजली पहुंचाने का ये छोटा सा प्रयास विशेष रूप से छोटे बच्चों, महिलाओं तथा विद्यार्थियों के लिए एक वरदान बन गया.
विशेष भू-भाग के कारण भौगोलिक रूप से मुख्यधारा से पिछड़ा है ये क्षेत्र
असल में झारखंड राज्य के लातेहार जिले में करमडीह गांव माओवादी प्रभुत्व व क्रियाकलापों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है. बूढ़ा पहाड़ के तलहटी में बसा यह गांव उनके रणनीतिक तैयारी का केंद्र रहा है, जहां से वह रसद आपूर्ति की व्यवस्था व पारगमन के रास्ते बनाते रहे हैं. इसके विशेष भू-भाग के कारण यह भौगोलिक रूप से मुख्यधारा से पिछड़ा हुआ है और इसी वजह से ये क्षेत्र प्रशासनिक पहुंच से दूर है. माओवादियों के रणनीतिक रूप से प्रमुख रहे इस केंद्र पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के लिए 112 बटालियन की टुकड़ियों को 20 अगस्त 2018 को करमडीह में पूर्णकालिक रूप से स्थापित किया गया.
और घरों में भी दो तीन दिन के भीतर पहुंचा दी जायेगी बिजली : आईजी संजय आनंदराव लाठकर
आईजी संजय आनंदराव लाठकर के मुताबिक़ यहाँ और घरों में भी दो तीन दिन के भीतर बिजली पहुंचा दी जायेगी. इस पर काम शुरू है, ‘हमारी कोशिश है कि 300 मीटर दायरे वाले और घरों को भी हम रोशन कर दें. इसके लिए तुरंत दो हज़ार मीटर केबल बिछाई जाएगी.’ आदिवासियों के इलाके में इस तरह के काम करना सीआरपीएफ के लिए कोई नई बात नहीं है. आईजी संजय लाठकर बताते हैं कि ऐसे इलाकों में हमने सोलर लाइट लगवाई हैं लेकिन जनरेटर से आदिवासियों को बिजली की सुविधा पहली बार दी गई है. ये अस्थाई बन्दोबस्त है तब तक जब तक इन्हें शासन की तरफ से बिजली नहीं मिल जाती.
दवाई का बन्दोबस्त भी 35 किलोमीटर दूरी पर
अभाव, जोखिम और खौफ के साये में ज़िन्दगी बसर कर रहे यहाँ के आदिवासियों के बीच सरकारी तंत्र पर भरोसा कायम करने में भी ऐसी कवायद अहम भूमिका निभाती है. इस क्षेत्र में CRPF की अभी दो कम्पनियों के डेरा जमा लेने से ही स्थानीय लोगों में आशा का संचार हुआ है वरना हालात तो ये हैं कि यहाँ से सबसे नज़दीक अगर पुलिस की कोई उपलब्धता है तो वो भी 50 किलोमीटर के फासले पर है. दवाई का बन्दोबस्त भी 35 किलोमीटर दूरी पर है. आईजी संजय लाठकर ने बताया कि हम इन आदिवासियों को चिकित्सीय मदद और दवाएं भी आपने संसाधनों से मुफ्त उपलब्ध करवा रहे हैं.
सीआरपीएफ की पहुंच आदिवासियों के लिए आशा की किरण लेकर आई
वैसे यहाँ नक्सलियों का खौफ इतना है कि वन विभाग के लोग काम तक नहीं कर सकते. टाइगर रिजर्व होने की वजह से, यहाँ की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए उन्होंने कुछ जगह पर कैमरे लगाये तो नक्सली उखाड़ ले गये. बिना वन विभाग की मदद के यहाँ कोई काम हो ही नहीं सकता. न सड़क बन सकती है ना ही बिजली के खम्बे और लाइन बिछ सकती है. हथियारबंद नक्सलियों के आगे गरीब और कमज़ोर आदिवासी विरोध करना तो दूर तब भी अपनी जुबां तक नहीं खोल पाते जब वो इनके घरों में घुसकर मनमर्जी करते हैं. सरकारी तंत्र की उपलब्धता न होने की वजह से आदिवासी खुद को मजबूर पाते हैं लेकिन सीआरपीएफ की ऐसे क्षेत्रों में पहुंच आदिवासियों के लिए आशा की किरण लेकर आती है.
CRPF की तरफ से इनके लिए कल्याणकारी योजनाओं पर काम करना, इनकी सरकार के प्रति वफादारी और विश्वास बढ़ाने में मदद कर रहा है. लेकिन एक असलियत ये भी है कि इसकी बड़ी कीमत सीआरपीएफ और अन्य सुरक्षा बलों के जवानों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है.
केरल के बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए सीआरपीएफ के परिवार भी आगे आये