भारत – पाकिस्तान के बीच 1999 के करगिल युद्ध के दौरान कश्मीर में बम धमाके की चपेट में आने से घायल हुए सीमा सुरक्षा बल (border security force) के डिप्टी कमान्डेंट भूपिंदर सिंह धालीवाल अनुभव और उम्र बढ़ने के साथ हासिल ज्ञान के दम पर और प्रतिभावान होते जा रहे हैं. बीएसएफ में अधिकारी के तौर पर 24 बरस की सेवा में से 18 साल एक फौजी की तरह सरहद पर डटे रहे भूपिंदर सिंह धालीवाल अब बंदूक के बाद कलम के भी सिपाही हो गये है. मज़े की बात तो ये कि जिस देश से उन्होंने युद्ध में दो दो हाथ किये वहां के लोगों ने भी उनकी लेखनी को कबूल करके उसे इज्ज़त बख्शी. यहां ज़िक्र पाकिस्तान का है जहां उनकी एक किताब लाहौर में प्रकाशित हुई. भूपिंदर सिंह धालीवाल अब अफगानिस्तान के हालात पर किताब लिखने की तैयारी कर रहे हैं. ये उनकी आठवीं किताब होगी. भूपिंदर सिंह धालीवाल की आठवीं किताब अफगानिस्तान के पहले और अबके हालात पर है जिसका शीर्षक होगा – अफ़ग़ानिस्तान, आफतों का दरवाज़ा.
प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा ले चुके अपने दादा पूरण सिंह और उनके सैनिक जीवन के किस्सों से प्रेरित होकर भूपिंदर सिंह ने भी सेना में जाने की कोशिश की लेकिन सेना में अधिकारी न बन सके. धालीवाल ने हार नहीं मानी और बीएसएफ में प्लाटून कमांडर भर्ती हो कर दुनिया की इस सबसे बड़ी बॉर्डर मैनेजमेंट बल का हिस्सा बन गये. 50 साल की उम्र में भी पीर पंजाल की दुर्गम पहाड़ियों से भी दुश्मन का सामना किया.
बीएसएफ के सेवानिवृत्त डिप्टी कमांडेट भूपिंदर सिंह धालीवाल ने पहली किताब धर्म पर लिखी. दुनिया भर में प्रचलित 25 धर्मों या यूं कहें कि पूजा पद्धतियों के बारे में जानने और समझने के बाद उनका आकलन किया. इसके लिए अन्य देशों में रहे और विदेशियों से जानकारियां हासिल करके मदद भी ली. पंजाबी में लिखी इस किताब का शीर्षक है ‘धर्म को कैसे समझें’ जो 2014 में प्रकाशित हुई. भूपिंदर सिंह धालीवाल की दूसरी किताब मानव व्यवहार और उसकी बड़ी कमजोरी पर लिखी ‘अनजाने के डर में डरते लोग’.
भूपिंदर सिंह धालीवाल बताते हैं कि उनकी तीसरी किताब ‘बदलते रूपों का अहसास’ के साथ तो दिलचस्प किस्सा हुआ. गुरमुखी पंजाबी में छपी उनकी इस किताब को लाहौर के एक प्रकाशक ने शाहमुखी यानि उर्दू स्क्रिप्ट में पंजाबी में छापा. एक फौजी की आत्मकथा शीर्षक से उन्होंने अपनी बायोग्राफी लिखी. भूपिंदर सिंह धालीवाल ने साथ ही उन युवाओं को लक्ष्य करके भी किताब लिखी जो सेना में भर्ती होना चाहते हैं – फौजी अफसर कैसे भर्ती हों. वहीं एक और किताब आतंकवाद पर भी उन्होंने लिखी जिसका शीर्षक है ‘दहशतगर्दी’. खुफिया तंत्र का लम्बे समय तक हिस्सा रहे भूपिंदर सिंह कुछ बताते बताते रुक जाते हैं. वो असल में चर्चा करने वाले थे कुछ विदेशी मिशनों का लेकिन अचानक उनको ख्याल आया कि ये बात गुप्त रहनी चाहिए.
सिपाही से साहित्यकार बने भूपिंदर सिंह धालीवाल विभिन्न विषयों पर 200 से ज़्यादा लेख लिख चुके हैं. यहीं नहीं सेना और सैन्य जीवन पर इनकी लिखी दो किताबें पंजाब शिक्षा बोर्ड के स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं.
जिन दिनों करगिल में युद्ध चल रहा था, उस दौरान पीर पंजाल पहाड़ी इलाके में जुलाई 1999 के पहले हफ्ते में तोप के गोले से हुए धमाके ने उनसे कुछ ही फुट दूर मौजूद हवलदार को शहीद कर दिया था. धालीवाल के माथे में स्प्लिन्टर लगा और साथ ही कान का पर्दा फट गया. अब भी उन्हें कम सुनाई देता है. इस हालत में रिटायरमेंट ली लेकिन काम करने की आदत हो और शरीर सक्षम हो तो फौजी कहां आराम करने वाला. सो, भूपिंदर सिंह धालीवाल ने लुधियाना के प्रसिद्ध ओसवाल समूह में बतौर चीफ सिक्योरिटी अधिकारी सेवा शुरू की जहां से कुछ साल बाद मुक्त हुए.
रिटायर्ड डिप्टी कमांडेंट धालीवाल ने कलम तो थामी ही, साथ ही समाज सेवा में भी अब हिस्सा लेना शुरू किया. अपनी माता हरबंस कौर को समर्पित संस्था ‘माता हरबंस कौर चौकीमान चेरीटेबल ट्रस्ट’ का गठन करके धालीवाल ने ज़रूरतमंदों की मदद शुरू की. आपात काल में किसी गरीब को आर्थिक सहायता, आर्थिक तौर पर कमज़ोर परिवार के प्रतिभवान बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने का बन्दोबस्त, विधवा या बेसहारा महिलाओं को सशक्त करना इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है. पांच महीने के भीतर ही चार मामलों में इन्होने ज़रूरतमंदों की सहायता कर डाली है. अपने इस काम से भूपिंदर सिंह धालीवाल को काफी संतुष्टि मिलती है. यही नहीं, अपने पुरखों के गांव चौकीमान स्थित जमीन पर खेती बाड़ी और पुश्तैनी जायदाद की देखभाल के लिए भी वो वक्त निकालते हैं. रिहायश तो कभी कभी आस्ट्रेलिया में भी होती है जहां उनका बेटा और बेटी अपने अपने परिवारों के साथ रहते हैं. लेकिन पत्नी के देहांत के बाद भूपिंदर सिंह अब लुधियाना के ठरीके गांव में ही रहना चाहते हैं.