मेजर दुर्गा मल्ल …! भारत की देवभूमि कहलाने वाले राज्य उत्तराखंड में जन्मे इस शहीद को बेशक इतनी लोकप्रियता नहीं मिली जिसके वे हकदार हैं लेकिन इस गोरखा सैनिक ने, ब्रिटिश राज से आज़ादी दिलाने वाले आन्दोलन के इतिहास में अपना नाम पहले गोरखा शहीद सैनिक के रूप में दर्ज करवाकर अमरत्व हासिल कर लिया है. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी यानि आज़ाद हिन्द फ़ौज में मेजर दुर्गा मल्ल को अँगरेज़ हुक्मरानों ने जासूसी करते पकड़े जाने पर दिल्ली के लाल किले में फांसी की सज़ा सुनाई थी और इत्तेफाक देखिये वो तारीख भी 15 अगस्त थी और साल था 1944. वैसे उन्हें फांसी दिल्ली की जिला जेल में 25 अगस्त को दी गई. लिहाज़ा इस दिन को भारत का गोरखा समुदाय बलिदान दिवस मनाता है और भारत की आजादी के लिए मतवाले रहे उस सैनिक के गोरखा होने पर फख्र करता है.
15 साल की उम्र में लगा दिये थे आजादी समर्थक पोस्टर
देहरादून में डोईवाला के पास 1 जुलाई 1913 पैदा हुए दुर्गा मल्ल के पिता गंगाराम मल्ल भी फौजी थे और गोरखा राइफल्स में नायब सूबेदार रहे. दुर्गा बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों के थे और ब्रिटिश शासन की नजरों में तब ही आ गये जब उन पर गोरखा रेजिमेंट के रिहायशी क्वाटरों की दीवारों पर आजादी समर्थक पोस्टर लगाने का संदेह हुआ था. तब उनकी उम्र 15 साल के आसपास रही होगी. उन दिनों में उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में जलसे जुलूसों में शामिल होकर सक्रियता दिखाई थी.
18 साल की उम्र में गोरखा राइफल्स में भर्ती हुए दुर्गा
देहरादून में ही गोरखा मिलिट्री मिडिल स्कूल में उन्होंने पढ़ाई भी की. स्कूल के बाद 18 साल की उम्र यानि 1931 में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में पहुंचकर गोरखा राइफल्स में भर्ती हुए दुर्गा. पढ़ाई लिखाई में होनहार होने की वजह से उन्हें बेहतर ट्रेनिंग के लिए पुणे भेजा गया और साथ ही तरक्की देकर सिग्नल हवलदार भी बना दिया गया. बाद में यही ट्रेनिंग उनके तब काफी काम आई जब उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी का रुख किया.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ऐसे गठित की आईएनए (INA)
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से पहले आईएनए की स्थापना कैप्टन मनमोहन सिंह ने तब की थी जब 1941 में गोरखा रेजिमेंट को जापानी फ़ौज से मुकाबले के लिये मलाया के द्वीपों पर भेजा गया था. इसी युद्ध के दौरान जब भारतीयों के बीच चर्चा हुई कि ये युद्ध लड़कर तो ब्रितानवी राज को विस्तार मिलेगा. तब भारतीयों ने पाला बदलते हुए अंग्रेजी फौजों के खिलाफ जंग छेड़ दी. कैप्टन मनमोहन सिंह के युद्ध बंदियों के साथ मिलकर बनाये इस प्लान को सफलता नहीं मिली लेकिन इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आईएनए (INA) गठित कर ली.
सैनिकों की भर्ती का ज़िम्मा सम्भाला था दुर्गा ने
दूसरे विश्व युद्ध में ब्रितानवी फौजों के खिलाफ भारतीय फौजों के मैदान में आ जाने को 1857 की उस क्रान्ति की पुनरावृत्ति की तरह देखा गया जिसने भारत में अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं. और यहीं पर दुर्गा मल्ल का ज़िक्र न हो, ऐसा संभव नहीं है. दुर्गा ने शुरू में आजाद हिन्द फौज के लिए सैनिकों की भर्ती का ज़िम्मा सम्भाला और इस फ़ौज में बड़ी तादाद में गोरखा सैनिक भर्ती कराये. इसके बाद उन्हें तरक्की देकर मेजर बना दिया गया और साथ ही सेना की गुप्तचर इकाई का ज़िम्मा सौंपा गया.
कोहिमा में 27 मार्च 1944 को उन्हें तब गिरफ्तार कर लिया गया जब वो दुश्मन की ख़बरें इकट्ठा करने उनके कैम्प में घुसे हुए थे. उनके खिलाफ लाल किले में अदालत में मुकदमा चला और उन्हें सजा ए मौत देने से पहले मौका दिया गया कि इसके विकल्प के तौर पर उन्हें कोई और सज़ा दी जायेगी बशर्ते वह देशद्रोह का अपराध कबूल कर लें. उन्हें भावुक करने और मानसिक दबाव में लाने के मकसद से उनकी पत्नी शारदा को उनसे जेल में मिलवाया भी गया लेकिन मेजर दुर्गा के आखिरी वाक्य थे, ‘जो बलिदान मैं देने जा रहा हूँ वो व्यर्थ नहीं जाएगा. भारत आजाद होगा, मुझे भरोसा है. कुछ ही समय की बात है, शारदा …फ़िक्र न करो करोड़ों हिन्दुस्तानी तुम्हारे साथ हैं’. हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला की शारदा लौट गई.
शादी के बाद सिर्फ 3 दिन बिताए पत्नी के साथ!
उन कठोर हालात की कल्पना करके सिहरन होती है जब पता चले कि ये आखिरी शब्द कोई शख्स अपनी पत्नी से तब कह रहा हो जब वो शादी के बाद उसके साथ सिर्फ तीन दिन ही बिता सका हो और तब के बाद अब तीन साल बाद मिल रहा हो, वो भी जेल में …मौत के करीब.
मेजर दुर्गा मल्ल दबाव में नहीं आये और न ही उन्होंने आजाद हिन्द फौज के लिए काम करने को देशद्रोह मानना मंजूर किया. 15 अगस्त को उन्हें सज़ा ए मौत सुना दी गई और 25 अगस्त 1944 का सूर्योदय उनके जीवन का अस्त लेकर आया.
मेजर दुर्गा मल्ल के बलिदान दिवस पर गोरखा समुदाय का रक्तदान शिविर