द्रास ..! केंद्र शासित क्षेत्र लदाख में एक ऐसी जगह जो इंसानी बसावट वाला भारत में सबसे ठंडा इलाका है. यही नहीं दुनिया के सबसे सर्द इलाकों की फेहरिस्त में भी ये दूसरे नंबर पर है. पहले नंबर पर साइबेरिया आता है. इस खासियत के अलावा यहां बनाया गया करगिल समर स्मारक द्रास की अहमियत बढ़ा देता है. भारत – पाकिस्तान के बीच 1999 में हुई लड़ाई में वीरगति को प्राप्त 500 से ज्यादा भारतीय सैनिकों को समर्पित इस स्मारक में आना किसी के भी जीवन का शानदार अनुभव हो सकता है. यहां लगा भारत का राष्ट्र ध्वज तिरंगा दूर से ही उन लोगों को आकर्षित करता है जो श्रीनगर -लेह मार्ग से गुजरते हैं. ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप इस रास्ते से निकलें और यहां न रुकें. खासतौर से पहली दफा यहां से निकलने वाले राहगीर तो सैन्य शूरवीरता, समर्पण और देशभक्ति के प्रतीक इस विशाल स्मारक पर रुके आगे बढ़ ही नहीं सकते.
पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए भारतीय सेना (indian army) की तरफ से छेड़े गए ‘ऑपरेशन विजय’ (operation vijay) की याद में ये स्मारक बनाया गया है. औसतन यहां रोज़ाना 1000 से 1500 लोग आते हैं. ऊँची पहाड़ी चोटियों की तलहटी में मुख्य श्रद्धांजलि स्थल पर लगा तिरंगा अक्सर यहां चलने वाली तेज़ हवा में लहराता रहता है. इसी के करीब हमेशा प्रज्ज्वलित रहने वाली अमर ज्योति की लौ उसी लौ की याद दिलाती है जो कभी दिल्ली के ऐतिहासिक इंडिया गेट की अमर जवान ज्योति पर दिखाई देती थी. तिरंगा और ज्योति का मेल ये वीरगति प्राप्त सैनिकों के सम्मान में एक जीवंत दृश्य सृजित करते दिखाई देते हैं. करगिल युद्ध स्मारक के बायीं तरफ वीर भूमि है जहां, वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों के नाम और अन्य विवरण वाले शिलालेख लगे हैं. इसी के साथ जोज़िला के युद्ध समेत भारत के इस क्षेत्र में लड़ी गई अन्य लड़ाइयों का इतिहास भी यहां लगे काले ग्रेनाइट पर दर्ज है. स्मारक में हाईवे से ही विशाल दरवाज़ों से प्रवेश किया जाता है. अंदर घुसते ही विजय पथ के दोनों तरफ उन नायको की आवक्ष प्रतिमाएं लगी मिलती हैं जिन्होंने दुश्मन पाकिस्तानी सैनिकों को अपनी भूमि से खदेड़ने के लिए जौहर दिखाया और अपने प्राणों तक की आहुति दे डाली.
युद्ध के हालात यहां समझें :
करगिल युद्ध स्मारक की दायीं तरफ रिमेम्ब्रेंस हट (remembrance hut ) बनी हुई है. इसमें तकरीबन 20 मिनट बिताकर आप पाकिस्तान के साथ लडे गए इस युद्ध की तमाम परिस्थितियों को समझ सकते हैं. द्रास और इसके आसपास के पहाड़ी इलाकों में युद्ध के हालात और सेना की पोजीशन समझने में यहां रखे गए मॉडल से काफी मदद मिलती है. स्मारक की सुरक्षा से लेकर देखभाल तक का ज़िम्मा सम्भालने वाले भारतीय सेना (indian army) की मद्रास रेजीमेंट के मौजूद सैनिक आगंतुकों को युद्ध के हालात की जानकारी अच्छे से देते हैं. वीरगति को प्राप्त सैनिकों के चित्र, युद्ध में इस्तेमाल हथियार, बंदूकें और गोला बारूद समेत ऐसा काफी कुछ यहां पर है जो करगिल युद्ध का सही सही ब्यौरा देता है. स्मारक रिमेम्ब्रेंस हट ही एक ऐसी जगह है जहां फोटोग्राफी या वीडियो ग्राफी करने की इजाज़त नहीं है. युद्ध और उससे पहले की परिस्थितियों पर बनी एक डोक्युमेंटरी फिल्म भी यहां दिखाई जाती है जो काफी सूचनाप्रद है.
इसलिए रखा गया ‘गनहिल’ नाम :
करगिल युद्ध को जीतने में बोफोर्स तोपों (bofors gun ) की अहम भूमिका रही है जिन्हें 1980 के दशक में खरीदा गया था. इन तोपों की गर्जन भले बाद में हुई लेकिन इनकी आमद पर भारत में ज़बरदस्त राजनीतिक तूफ़ान उठा और सत्तारूढ़ काग्रेस को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. ये वो स्थान है जिसमें, पूर्व और पश्चिम में पहाड़ों पर कब्ज़ा जमाए पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने के लिए 100 बोफोर्स तोपों और 122 एम एम वाले तीन मल्टी बैरल राकेट लांचर से ताबड़तोड़ हमले किये गए. इनके हमलों ने दुश्मन सैनिकों के हौसले पस्त कर डाले थे. आर्टिलरी के इस ‘शत्रुनाश’ नाम के इस अंतिम हमले की याद को ताज़ा रखने के लिए प्वाइंट 5140 चोटी का हाल ही में ‘ गन हिल ‘ (gun hill ) नाम रखा गया है . असल में , ये नाम उन गनर्स (gunners) को समर्पित किया गया है जिनके लगातार लगातार दागे गए गोलों ने पाकिस्तानी बंकरों को तबाह किया और उसके सैनिकों को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर डाला था.
पाकिस्तानी बंकर भी हैं करगिल युद्ध स्मारक में :
करगिल युद्ध स्मारक के एक तरफ लॉन में, मज़बूत धातु के बने मज़बूत वे अलग अलग तरह के दो पोटेबल बंकर भी रखे हैं जिनका इस्तेमाल पाकिस्तानी सैनिकों ने छिप कर रहने और हमला करने में किया था. ये उनके सुरक्षित ठिकाने थे लेकिन युद्ध के दौरान भारतीय सेना ने उनको इतना मौका भी नहीं दिया कि वे इन बंकरों को वापस अपने साथ ले जा सकें. इन बंकरों पर सफेद पेंट है और हरे रंग का पाकिस्तान का झंडा और राष्ट्रीय प्रतीक बना है. बंकरों के सफेद होने की वजह ख़ास है. वो है इनका बर्फीले इलाके में दिखाई न देना. पाकिस्तान ने 1998 की सर्दियों में यहां की पहाड़ियों के शिखरों पर घुसपैठ तब की थी जब यहां कई कई फुट मोटी बर्फ की परत जमी हुई थी.
ऐसे हुई घुसपैठ :
द्रास और इसके आसपास के पर्वतीय क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान इंसान के लिए जीने के हालात बेहद मुश्किल भरे होते हैं. जबरदस्त बर्फ और तापमान -35 डिग्री या उससे भी कम हो जाता है. सैनिकों के लिए तो ये हालात और भी मुश्किल होते हैं क्योंकि उनकी तैनाती अत्यधिक उंचाई वाले क्षेत्र में भी होती है. इन हलात को देखते हुए भारत और पाकिस्तान की सेना के बीच एक अलिखित समझौता था. दोनों देशों के सैनिक उन दिनों में वे अपने अपने बंकर खाली छोड़ जाते थे. कई साल से सिलसिला चल रहा था लेकिन 1998 में पाकिस्तान सेना ने धोखा कर डाला. भारतीय सैनिकों के लौट जाने का फायदा उठाते हुए उन्होंने नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) के इस पार करीब 10 – 12 किलोमीटर तक भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर डाली. यही नहीं, उन्होंने भारतीय सैनिकों के खाली बंकरों में ठिकाने बना लिए. घुसपैठियों ने कपड़े भी सफेद पहने हुए थे ताकि बर्फ में उनको कोई देख न सके.
द्रास की सामरिक विशेषता :
द्रास वो इलाका है जहां सर्दियों में तापमान -35 डिग्री हो जाता है और कभी कभी तो इससे भी कम. कश्मीर से लदाख को जोड़ने वाला यही क्षेत्र है और यहीं गुजरने वाले हाई वे से लदाख भारत के शेष भाग से जुड़ता है. सेना की रसद और माल भी इसी रास्ते से बॉर्डर पर तैनात फौजियों तक पहुँचता है. पाकिस्तान का मकसद इस इलाके पर कब्ज़ा कर लदाख को भारत से अलग करके उस पर कब्जा कर लेने का था. हालांकि शुरू में तो पाकिस्तान ने इस घुसपैठ में अपना हाथ होने से स्पष्ट इनकार कर डाला था. पाकिस्तान ने करगिल युद्ध में मारे गए अपने सैनिकों के शव तक की शिनाख्त करने से इनकार कर दिया था .लेकिन जब भारतीय सेना ने मारे गए पाकिस्तानी सैनिकों के आई कार्ड और पाकिस्तानी सेना के निशान वाले सामान सबूत के रूप में की उजागर करके उसकी पोल खोली तब पाकिस्तान ने असलियत कबूल की. ये पाकिस्तानी सामान भी स्मारक में रखा है.