जिन्हें मरा समझा वो ब्लेड रनर मेजर डीपी सिंह चुना गया रोल मॉडल

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मेजर डीपी सिंह
ब्लेड रनर मेजर डीपी सिंह

भारत के पहले ब्लेड रनर के तौर पर विख्यात भारतीय सेना के जांबाज़ सिपाही रिटायर्ड मेजर डीपी सिंह को दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय अवार्ड के लिए चुना गया है. करगिल संघर्ष में हिस्सा ले चुके योद्धा मेजर डीपी सिंह को 2018 का ये अवार्ड रोल मॉडल की श्रेणी के लिए चुने जाने पर दिया जा रहा है.

भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की तरफ से नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 3 दिसम्बर को आयोजित होने वाले समारोह में रिटायर्ड मेजर डीपी सिंह को ये अवार्ड प्रदान किया जाएगा. इसकी सूचना दो तीन दिन पहले ही जारी की गई है.

हरियाणा के मूल निवासी 45 वर्षीय देवेंदर पाल सिंह यानि मेजर डीपी सिंह कई दिव्यांगजनों के लिए प्रेरणास्रोत हैं. 13 सितम्बर 1973 को जगाधरी में पैदा हुए मेजर डीपी सिंह को सेना में कमीशन हासिल किये अभी बमुश्किल दो साल ही हुए थे कि उन्हें देश के लिए लड़ने का मौका मिल गया. करगिल संघर्ष के दौरान आपरेशन विजय के तहत उनकी तैनाती भारत पाकिस्तान सीमा पर नियंत्रण रेखा (एलओसी – LOC ) पर अखनूर सेक्टर पर थी.

करगिल में वो धमाका :

वो 15 जुलाई 1999 का दिन था. डीपी सिंह तब पाकिस्तानी चौकी की तरफ बढ़ रहे थे और उस वक्त पाकिस्तानी चौकी से सिर्फ 88 मीटर के फासले पर ही थे जब दुश्मन की तरफ से दागा गया मोर्टार गोला उनके बेहद करीब आकर फटा, सिर्फ डेढ़ मीटर के फासले पर. उनके जिस्म का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा था जो जख्मों से बचा हो. हालत ऐसी थी कि एकबारगी डॉक्टर्स ने उन्हें मृत घोषित ही कर छोड़ा था. लेकिन एक वरिष्ठ डॉक्टर की पहल और कोशिश ने उनकी साँसें लौटा दीं. ये एक तरह से मेजर डीपी सिंह का दूसरा जन्म था.

मेजर डीपी सिंह
ब्लेड रनर मेजर डीपी सिंह

लेकिन गंवाई टांग :

मेजर डीपी सिंह के इलाज के दौरान काफी कुछ ठीक हो गया लेकिन जो न हुआ, वह थी उनकी दाहिनी टांग. उनकी टांग में खतरनाक इन्फेक्शन से गैंगरीन हो गई लिहाज़ा उसे फैलने से रोकने के लिए टांग का वो हिस्सा जिस्म से अलग करना पड़ गया. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. नकली टांग के बूते 26 साल के इस नौजवान फौजी अफसर ने नये नजरिये से ज़िन्दगी की शुरुआत की और फिर से भारतीय सेना की सेवा में लग गये. एक टांग और जवानी के दस साल भारतीय सेना को समर्पित करके वर्ष 2007 में देवेंदर पाल सिंह रिटायर हो गये.

भारत के पहले ब्लेड रनर ऐसे बने :

सेना से रिटायर्मेंट के बाद 2009 में उन्होंने पहली बार हाफ मैराथन में हिस्सा लिया और फिर दौड़ने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि उनके जीवन में नई रफ्तार और नया नज़रिया आ गया. वो दौड़ों में हिस्सा लेने लगे. सेना ने उन्हें वो ब्लेड मुहैया कराए जिनका इस्तेमाल टांग गँवा चुके एथलीट धावक किया करते हैं. और फिर नये स्टाइल के साथ मेजर डीपी सिंह ने फासलों को पछाड़ना शुरू किया. उन्होंने एक ग्रुप बनाया और दिव्यांगजनों को प्रोत्साहित करना शुरू किया. जिनके लिए ठीक से सड़क चलना भी चुनौती था वो औरों के लिए चुनौती बनने लगे. इसी के साथ ही उनकी एक नई पहचान भी बन गई – ब्लेड रनर.

प्रेरणास्रोत यूँ बने :

लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स ने मेजर डीपी सिंह का नाम 2016 में ‘ पीपल ऑफ़ द ईयर’ की फेहरिस्त में भी शामिल किया. मेजर डीपी सिंह का पसंदीदा वाक्य है – चलो हम बदलाव के लिए अगुआ बने और दूसरों के शुरुआत करने का इंतज़ार न करें (Let’s lead the change and not wait for others to begin) ये वाक्य मेजर डीपी सिंह के फेसबुक पेज @MajorDPSingh का हिस्सा है.

पढ़ाई लिखाई :

जगाधरी में 13 सितम्बर 1973 को पैदा हुए देवेन्दर पाल सिंह ने उत्तराखण्ड के रुड़की (उत्तर प्रदेश) में केन्द्रीय विद्यालय से सीनियर सेकंडरी तक और मेरठ में चौधरी चरण यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई की. पोस्ट ग्रेजुएशन उन्होंने मध्य प्रदेश के जबलपुर में रानी झांसी यूनिवर्सिटी से किया.

सेना में शुरूआती करियर :

मेजर डीपी सिंह ने 6 दिसम्बर 1997 को इंडियन मिलिटरी अकेडमी के 101वें कोर्स के रेगुलर बैच में थे. उन्होंने डोगरा रेजिमेंट की 7 वीं बटालियन में कमीशन प्राप्त किया था लेकिन करगिल में घायल होने के बाद साल 2002 में वो सेना आयुध कोर (Army Ordnance Corps ) में परिवर्तित हुए जहां वो पांच साल रहने के बाद 2007 में रिटायर हुए.

मेजर डीपी सिंह अब दिल्ली के पास हरियाणा के गुरुग्राम में रहते हैं और अक्सर वहां की सड़कों पर कभी अकेले तो कभी दिव्यांग साथियों के संग देखे जा सकते हैं.