जब सोने से बनी डाक टिकट लेकर कर्नल हरबख्श चंडीगढ़ पहुंचे

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डाक टिकट
सोने से बनी डाक टिकट लेकर कर्नल हरबख्श चंडीगढ़ पहुंचे.

इंटरनेट के दौर ने डाकघर के ज़रिए चिट्ठी पत्री भेजने के सिलसिले को जब काफी हद तक कम कर दिया तो ऐसे में डाक टिकटों का इस्तेमाल भी कम होना लाज़मी है. मतलब ये कि कागज़ पर छापी गई टिकटों का वजूद खतरे में है. ऐसे में भला, सबसे महंगे धातुओं में से एक, सोने से बने डाक टिकट का क्या अर्थ हो सकता है ..! आसानी से यकीं नहीं होता लेकिन ये सच है कि सोने से बनी डाक टिकट भी उपलब्ध हैं और वो भी भारत में. इन्हें बनाने का आइडिया मिसाइलमैन के तौर पर दुनिया भर में विख्यात भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम आज़ाद का था. अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाकर 1947 में पहली बार आज़ादी से फहराए गए तिरंगे, फिर संविधान लागू होने पर गणतंत्र बनने के अवसर से लेकर आधुनिक भारत तक के दशकों के सफ़र के दौरान कला, संस्कृति, खानपान जैसे जीवन के विभिन्न आयाम और उनसे जुडी घटनाओं व शख्सियतों की याद में डाक टिकट जारी होते रहते हैं.

डाक टिकट
डाक टिकटों को प्रदर्शनी

डाक टिकट का अनूठा संकलन :

लेकिन बहुत कम लोगों को डाक टिकटों के इस अनोखे संकलन के बारे में अब याद है. काफी लोगों को तो इसका पता भी नहीं है. सोने से बनाई गई इन 25 डाक टिकट के बहुत कम सेट भारतीय डाक विभाग की तरफ से जारी किये गए थे. 25 डाक टिकटों की ये तस्वीरें पूरे भारत की कहानी बयान कर देती हैं. ऐसा ही एक सेट मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में पहली दफा हिस्सा ले रहे कर्नल हरबख्श सिंह धाम ने डाक टिकटों की अनूठी प्रदर्शनी में डिस्प्ले किया. आज से चौदह साल पहले 1.5 लाख रूपये में खरीदे गए डाक टिकट के इस एक संग्रह की कीमत 20 – 25 लाख रूपये कर्नल धाम आंकते हैं जिनको डाक टिकटों को जमा करने का शौक भी फ़ौज में भर्ती होने की तरह विरासत में मिला. लेकिन वर्ष 2008 में जब सोने की डाक टिकट के 1500 सेट भारतीय डाक विभाग ने बनवाए और उनकी बिक्री का ऐलान किया तो कर्नल हरबख्श धाम ने इनको खरीदने की ठान ली. हैरानी की बात है कि भांति भांति की डाक टिकटों को जमा करने के शौक़ीन उनके पिता मेजर बलजीत सिंह ने उनको ऐसा करने से रोका भी था. वजह ये थी कि कर्नल एक फ्लैट खरीदा था ताकि रिटायर्मेंट के बाद उसका इस्तेमाल किया जा सके लेकिन उसके लिए क़र्ज़ लेना पड़ा था. लिहाज़ा क़र्ज़ की किश्त चुकानी होती थी जिसकी वजह से वित्तीय स्थिति चुनौतीपूर्ण रहती थी.

डाक टिकट
कर्नल हरबख्श सिंह धाम ने डाक टिकटों को प्रदर्शनी में डिस्प्ले किया.

हमेशा जोश मारता फौजी :

महार रेजीमेंट की 15 वीं बटालियन से बीते साल ही रिटायर होकर घर लौटे कर्नल हरबख्श कहते हैं, ” डाक टिकट के सेट काफी कम थे, सेट की कीमत भी काफी थी और मैं इसे खरीदना चाहता था. सेट के लिए आवेदन कर दिया. हालाँकि उम्मीद कम थी लेकिन ये हमको आवंटित हो गया और मैंने इसे खरीद लिया”. अब चंडीगढ़ के पास ढकौली में रह रहे कर्नल हरबख्श धाम की भीतर का सैनिक हमेशा जोश के साथ सक्रिय रहने की उछालें मारता रहता है. 59 वर्षीय कर्नल हरबख्श अब लोगों को योगासन सिखाते हैं. उनके जोश का आलम ये था कि 1999 में करगिल युद्ध के दिनों में तैनाती कश्मीर सीमा से सैंकड़ों मील दूर थी लेकिन पाकिस्तान के साथ दो दो हाथ करने की तमन्ना में वे ऐसा कर बैठे जो सैनिक के तौर पर उनकी सेवा के लिए इतना घातक साबित हो सकता था कि उनको सेना से निकाला भी जा सकता था. कुछ लोग इसे बेफकूफी भी कह सकते हैं, दरअसल, रणभूमि में जाकर दुश्मन से दो दो हाथ करने का जज़्बा और जोश उनमें इतना भरा हुआ था कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को ये कहते हुए पत्र तक लिख डाला कि मुझे करगिल के युद्ध में न भेजा गया तो यूनिट से भागकर खुद ही पाकिस्तानियों से लड़ने पहुँच जाऊंगा. कर्नल हरबख्श कहते हैं कि इसके बाद उनको करगिल में तैनाती जब दी गई तब तक वहां फौजों की वापसी शुरू हो चुकी थी. उस जंग में सक्रियता से हिस्सा न ले पाने का उनको अफ़सोस होता है.

क्रांतिकारी दादा से विरासत में मिली देशभक्ति :

ये जोश और देशप्रेम का जज़्बा कर्नल हरबख्श के खून में ही है. पिता रिटायर मेजर बलजीत सिंह अब 90 साल के हैं. सेहत साथ दे रही होती तो वे इस प्रदर्शनी में साथ ही होते. मेजर बलजीत सिंह ‘ ज़ख़्मी’ लेखक हैं और टेरिटोरियल आर्मी (प्रांतीय सेना) में रहते हुए पाकिस्तान के साथ दो युद्धों, 1965 व 1971 में हिस्सा ले चुके हैं. पिता ही नहीं , दादा ज्ञानी जसवंत सिंह की रगों में देशप्रेम कूट कूट कर भरा हुआ था . कर्नल हरबख्श बताते हैं कि उनके दादा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल थे. वे क्रांतिकारियों की उस टोली में शामिल थे जिसे निर्देश दिए गए थे कि कुछ भी एक्शन करें लेकिन अंग्रेजों के हाथ न आयें.

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कर्नल हरबख्श सिंह धाम ने डाक टिकटों को प्रदर्शनी में डिस्प्ले किया.

गोल गप्पे की डाक टिकट :

दिलचस्प है कि कर्नल हरबख्श को जीवन साथी भी ऐसा मिला जिनके परिवार का इतिहास भी सैनिक परम्पराओं से जुडा है. उनकी पत्नी सतनाम कौर सैनिक परिवार से ताल्लुक तो रखती ही हैं, बरसों उन्होंने उन बच्चों को प्रेरित व शिक्षित किया जो सेन में भी जाने के इच्छुक रहते थे. सतनाम कौर आर्मी स्कूल में पढ़ाती थीं और वहां से बतौर प्रिंसिपल रिटायर हुई. हालाँकि इच्छा तो उनकी पत्रकार बनने की थी और इसी मकसद से दिल्ली के वाई एम सी ए से पत्रकारिता का कोर्स भी किया लेकिन कुछ महीने बाद ही अखबार छोड़ दिया. पत्रकारिता से मोह भंग जल्दी ही हो गया. मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में दर्शकों को जिस तरह से सतनाम कौर डाक टिकटों के बारे में दिलचस्प जानकारियां दे रहीं थी वो भी दिलचस्प था. जानकारी देना के उनके अंदाज़ के कारण उन लोगों में भी डाक टिकटों के लिए रूचि पैदा हो रही थी जो बस कुछ देर के लिए ही उस प्रदर्शनी को देख कला दीर्घा से बाहर निकलने की फिराक में थे. ऐसे ही कुछ दर्शक अचानक तब रुक गए जब सतनाम कौर बोलीं , ” ये गोल गप्पे पर जारी हुई डाक टिकट है “.