उस दिन (09-07-2018) सुबह जब आंख खुली तो सबसे पहले मोबाइल आन किया. पहली खबर पर नजर पडी तो चौंक गया. खबर थी मुन्ना बजरंगी की हत्या की वो भी जेल में. जिज्ञासा बढी तो और वेबसाइट खंगाली. अब तक मैं बाकी काम भूल गया था. सिर्फ और सिर्फ मुन्ना बजरंगी की हत्या की खबर की डिटेल ढूंढ रहा था क्योंकि मुन्ना के बारे में अमूमन सबको पता था… पुलिस रिकार्ड के मुताबिक एक सुपारी किलर, व्यापारियों और नेताओं को डराकर मौत की नींद सुला चुका दुस्साहसी मुन्ना बजरंगी. आरोप है कि उसे लगभग उतने ही अपराधों (40 से ज्यादा) में लिप्त रहे और आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कुख्यात सुनील राठी ने तन्हाई बैरक से निकलने के बाद अंदाजन 10 गोलियां मारीं. कहा तो यह भी जा रहा है कि घटना को अंजाम दिये जाने से पहले राठी ने मुन्ना के साथ चाय भी पी और फिर एक दूसरे की हत्या की सुपारी दिये जाने की बात पर कहा-सुनी भी हुई. यहाँ एक तथ्य का जिक्र करना जरूरी है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके शरीर में एक भी गोली नहीं पाई गई क्योंकि नजदीक से मारी गई सब गोलियां आर-पार हो गईं लेकिन उसके शरीर से 20 साल पुरानी मुठभेड के दौरान लगी एक गोली जरूर मिली. ताजा जानकारी सामने आई है कि जेल में सुनील राठी को रिवाल्वर और गोलियां राबिन नाम के शख्स ने उपलब्ध कराई थीं हालांकि राबिन के बारे में और जानकारी फिलहाल नहीं मिल पाई है.
अतीत में चलिये
मुन्ना बजरंगी उसका उपनाम था. 2005 के आसपास मुन्ना ने 400 गोलियां बरसाकर भाजपा विधायक कृष्णानंद राय को भून डाला था. असली नाम था प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना. जरायम की दुनिया में कूदने के बाद उसने अपना नाम मुन्ना बजरंगी कर लिया था. जौनपुर का रहने वाला था. पूर्वांचल में उसके नाम से लोग कांपते थे. उसी मुन्ना बजरंगी को बागपत जेल के भीतर गोलियों से भून दिया गया जिसे वह 29 अक्टूबर 2009 में मुम्बई के मलाड से नाटकीय गिरफ्तारी के बाद अपने लिये सबसे सुरक्षित मानता था. जेल से ही वह अपना ‘साम्राज्य’ चलाता था. 2017 में यूपी में भाजपा सरकार आने के बाद उसके लिये अपनी पसंदीदा जेल में रहना मुश्किल हो गया. इसके बाद से ही उसे डर भी लगने लगा था. मुन्ना की हत्या की आशंका उसकी पत्नी कई बार जता चुकी थी. अपराध तो जो हुआ सो हुआ लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि यह घटना जेल के अंदर हुई जिसने न सिर्फ जेल को बल्कि पूरे सिस्टम को कटघरे में खडा कर दिया. रिवाल्वर और ढेरों गोलियों का जेल के अंदर पहुंच जाना सोचने को मजबूर कर देता है. कानून-व्यवस्था को इससे बडी चुनौती और क्या हो सकती है तब जबकि कोई भी आग्नेयास्त्र, मोबाइल, चार्जर, सिम, धारदार हथियार ले जाना निषिद्ध है. ऐसे में बडा सवाल यही है कि जेल के अंदर किसी की जान लेने का पूरा बंदोबस्त (रिवाल्वर और गोलियां) आखिर किसने और कैसे किया. न्यायिक जांच से शायद ही इस रहस्य से कभी परदा उठ सके क्योंकि वाराणसी में भी एक घटना इसी तरह की पिछले दशक में हो चुकी है. इसका जिक्र आगे करेंगे.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जेलों में सुधार के लिये उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह के नेतृत्व में तीन सदस्यीय कमेटी गठित की है जो दो महीने में अपनी रिपोर्ट देगी.
दुस्साहसी मुन्ना
मुन्ना को शायद इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसके जैसा दुस्साहस कोई और भी कर सकता है. वह खुद को किंग आफ क्राइम मानता था. निश्चित ही उसके अंजाम दिये अपराध उसे दुस्साहसी होने का तमगा देते हैं. उसकी हिम्मत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि 1997 में दिल्ली के बादली इलाके में उसकी मुठभेड पुलिस से हो गई थी उसमें उसे 11 गोलियां लगी थीं. पुलिस ने उसे मरा जान लिया था. लेकिन राममनोहर लोहिया अस्पताल में जब उसे ले जाया गया तो डाक्टरों ने उसकी सांस चलती पाई और पुलिस का दावा गलत साबित हुआ. इसके बाद वह फरार हो गया था. दरअसल उसे उन अपराधों को करने में आनंद आता था जिससे तहलका मचे और उसके नाम का डंका बजे. उसके इसी अंदाज ने विरोधियों और पैसे वाले लोगों के मन में दहशत भर दी थी. इसी से उसके पास अकूत पैसा और ताकत बढती गई.
याद करिये वाराणसी की दो दुस्साहसी घटनाएं
और घटनाओं को अगर थोडी देर के लिये नजरंदाज कर दें तो जेल में हत्या की शुरुआत मुन्ना बजरंगी ने ही कराई थी. उसके शूटर अन्नू त्रिपाठी और बाबू यादव ने वाराणसी जिला जेल में सपा पार्षद बंशी यादव को मार्च 2004 में गोलियों से भून दिया था. दोनों वहाँ से बडे आराम से भाग गये थे. कालांतर में अन्नू और बाबू ने ‘माननीय’ बनने के इरादे से अपनी गिरफ्तारी कराई दिल्ली में. इस समय तक दोनों का सिक्का जम चुका था. अब उसकी फसल भर काटनी थी. बाबू को जिला जेल में रखा गया था जबकि अन्नू को वाराणसी सेंट्रल जेल में. बाबू की अपेक्षा अन्नू ज्यादा खतरनाक था और मुन्ना बजरंगी के ‘आपरेशन’ को उसी के अंदाज में अंजाम तक पहुंचाता था. जिला जेल की घटना के करीब एक साल बाद 12 मई 2005 को सेंट्रल जेल की बैरक में अन्नू को किट्टू नाम के बदमाश ने गोलियों से भून दिया था. बाद में किट्टू को पुलिस मुठभेड में मार गिराया था. जिस तरह अन्नू की हत्या की गई ठीक उसी तरह बागपत में बजरंगी को निपटा दिया गया. यहाँ बताना जरूरी है कि बाद में बाबू यादव सपा टिकट पर सभासद बना. वह डिप्टी मेयर बनने की तैयारी कर रहा था लेकिन बनारस में मौजूद ताकतवर विरोधी गुट को उसकी बढती ताकत मंजूर नहीं थी. सो, एक शाम गैंगवार में ही बाबू यादव को भी विरोधी गुट ने ठिकाने लगा दिया. बाबू का खौफ पत्रकारों तक में इतना था कि उसकी लाश पडी थी और सब क्राइम रिपोर्टर पहचान रहे थे लेकिन जब तक उसके परिवार ने पहचान नहीं कर ली किसी रिपोर्टर ने नहीं लिखा कि वह बाबू यादव था. दरअसल अन्नू और बाबू के जरिये पूर्वांचल खासतौर से वाराणसी में मुन्ना बजरंगी को अपना सालिड ग्रुप मिल गया था लेकिन वक्त की आंधी ने उसे लूट लिया.