प्राइवेट अस्पतालों में पूर्व सैनिक और केन्द्रीय कर्मचारियों को कैशलेस सुविधा से इलाज पर संकट

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गणतंत्र दिवस परेड के दौरान राजपथ पर पूर्व सैनिक. (File Photo)

भारत में निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य और चिकित्सा व्यवस्था बेहद खतरनाक हालात में पहुँच गई है और इसका खामियाजा लाखों पूर्व सैनिक और केंद्र सरकार के कर्मचारियों को भुगतना पड़ेगा. हो सकता है कि एक महीने बाद, इनके लिए प्राइवेट अस्पतालों में मुहैया कराई गई कैशलेस इलाज की सहूलियत निलम्बित कर दी जाये. इसका साफ़ साफ़ ऐलान, देश में स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र की सबसे बड़ी दो संस्थाओं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) और एसोसिएशन ऑफ़ हेल्थकेयर प्रोवाइडर (इंडिया) यानि एएचपीआई ने आज दिल्ली में किया है.

इन संस्थाओं के प्रतिनिधियों का इलज़ाम है कि केंद्र सरकार पूर्व सैनिकों के लिए बनाई गई ईसीएचएस और केंद्र सरकार के कर्मचारियों और उनके परिवार वालों के लिए बनी सीजीएचएस योजना के तहत लाभार्थियों के इलाज पर आने वाले खर्च को वाजिब तरीके से ना तय कर रही है और न ही उनके इलाज पर हुए प्राइवेट अस्पतालों के खर्च का भुगतान समय पर कर रही है.

650 करोड़ बकाया :

हैरानी की बात है कि ये रकम दस बीस करोड़ नहीं तकरीबन 650 करोड़ रूपये से भी ज्यादा है जो महीनों से लम्बित पड़ी हुई है. पूर्व सैनिकों के लिए बनाई गई ईसीएचएस योजना के लाभार्थियों की संख्या लगभग 55 लाख और और केंद्र सरकार कर्मियों की स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस के लाभार्थियों की संख्या तकरीबन 37 लाख है. दस बड़े अस्पतालों और अस्पताल समूहों के आंकड़ो को ही जोड़ा जाए तो पता चलता है कि सरकार ने उनको पूर्व सैनिकों के इलाज पर आये खर्च के 300 करोड़ रूपये और केंद्र सरकार के कर्मियों के इलाज पर खर्च हुए 350 करोड़ के बकाये का महीनों से भुगतान नही किया है. हालत ये हो गई है कि इन अस्पतालों को अपना रूटीन का खर्च निकालना भी भरी पड़ रहा है.

आईएमए के अध्यक्ष डॉक्टर वी के मोंगा का कहना था कि हम इस बारे में सरकार में नीचे से लेकर ऊपर तक सबको बार बार बता चुके हैं और अंत में परेशान होकर हमें इस मुद्दे पर मीडिया के सामने आना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि प्रक्रियाओं में गड़बड़ी और सरकारी तन्त्र की ढील के कारण इस समस्या का समाधान नहीं हो रहा इसलिए अब देश के तमाम छोटे बड़े अस्पतालों के मैनेजमेंट ने तय किया है कि एक महीने में भुगतान सम्बन्धी समस्या का हल नहीं निकला तो लाखों पूर्व सैनिकों और केंद्र सरकार के कर्मचारियों को कैशलेस इलाज मुहैया नही हो पायेगा.

प्राइवेट अस्पतालों में इलाज

खर्च और भुगतान में अंतर :

एसोसिएशन ऑफ़ हेल्थकेयर प्रोवाइडर (इंडिया) यानि एएचपीआई के डायरेक्टर जनरल डॉक्टर गिरधर ग्यानी का सरकार ने 2014 से अब तक इलाज पर प्रति व्यक्ति होने वाले खर्च की लागत की समीक्षा तक नहीं की. उनका कहना था कि बड़े अस्पताल में एक व्यक्ति को भर्ती करके उसका इलाज करने का औसत खर्च 6800 रूपये प्रतिदिन प्रति बेड होता है जबकि सरकार 3000 के हिसाब से दे रही है. इतना ही नहीं ये भुगतान भी समय पर नही हो रहा. उन्होंने कहा कि कई अस्पतालों जैसे अपोलो और गंगाराम अस्पताल ने तो केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए बनी सीजीएचएस योजना से खुद को हटा ही लिया है.

कर्मचारियों के लिए संकट :

प्रेस कान्फ्रेंस में मौजूद डॉक्टर भगत ने बताया कि केरल में ही अकेले 50 अस्पताल आर्थिक हालात खराब होने से बंद हो गये हैं. यही हालत और कई अस्पतालों की हो रही है. ऐसे में अस्पतालों में काम करने वालों के रोजगार छिनने के हालात भी बनेंगे. आईएमए के मुताबिक़ देश में 70 प्रतिशत ओपीडी (बाह्य रोग उपचार) और 60 आईपीडी (अस्पताल में भर्ती करके उपचार) प्राइवेट क्षेत्र ही उपलब्ध कराता है. अगर इस निजी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थानों पर संकट आएगा तो आम लोगों को इलाज कराने की समस्या विकट होगी.

योजना और हकीकत :

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदण्ड के हिसाब से भारत में मरीजों के इलाज के लिए जितने बिस्तर उपलब्ध होने चाहिए, उसके आधे भी वर्तमान में नहीं हैं. जो हैं भी वो मेट्रो या बड़े शहरों में हैं. डॉक्टर मोंगा का कहना था कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना का ऐलान करते वक्त कहा था कि मझले और छोटे शहरों में 2500 – 3000 नये अस्पताल खोले जाने की ज़रुरत है. डॉक्टरों की चिंता ये थी कि सरकार चाहती है कि ये अस्पताल प्राइवेट सेक्टर खोले लेकिन जब तक वर्तमान निजी अस्पतालों के हालात ठीक नही होंगे तब तक भला नये अस्पताल कैसे खुलने की उम्मीद की जा सकती है. ऐसे में इस योजना को अमल में लाये जाने पर ही सवाल खड़ा होना लाज़मी है.

भुगतान का नियम :

डॉक्टरों का कहना है कि सरकार से तय करार के मुताबिक़ सीजीएचएस के लाभार्थी के इलाज पर होने वाले अस्पताल के खर्च का भुगतान सरकार को एक महीने में करना चाहिए लेकिन इसमें महीनों तक भुगतान नहीं हो रहा लिहाज़ा अस्पताल चलाने के लिए प्रबंधकों को क़र्ज़ तक लेना पड़ रहा है. डॉक्टर चन्द्र मोहन भगत का कहना था कि कई अस्पतालों ने बैंक से ऋण लिया हुआ है और हालत ये है कि किश्त की अदायगी तो दूर, ब्याज की रकम तक चुकाने का बंदोबस्त नहीं हो पा रहा.