दिल्ली हाई कोर्ट ने भारतीय सेना की नर्सिंग सेवा में सिर्फ महिलाओं की तैनाती को लिंगभेद माना है और भारत सरकार को आदेश दिया है कि सेना में पुरुष नर्सों की भर्ती के मामले में दो महीने में फैसला लिया जाये. भारत सरकार की तरफ से, इस बाबत निर्णय लेने के लिए छह महीने की मोहलत मांगे जाने और इसके पीछे दी गई दलील दिल्ली हाई कोर्ट ने सिरे से ख़ारिज कर दी.
दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस राजेन्द्र मेनन और जस्टिस वी के राव की बेंच ने इस मामले में अगली सुनवाई के लिए 21 जनवरी 2019 का दिन मुक़र्रर किया है. सरकार की तरफ से वकील ने जब कहा कि मिलिटरी नर्सिंग सेवा (एमएनएस – MNS) में पुरुषों को भर्ती करने के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए सेना के तमाम बेस को सूचित करने और उनके विचार जानने के लिए 6 महीने का वक्त चाहिए होगा तो कोर्ट ने इन अनुरोध को ख़ारिज करते हुए टिप्पणी की, ‘हम डिजिटल दुनिया में हैं, सबको वीडियो कांफ्रेंसिंग पर लो और फैसला करो.’
सरकार की तरफ से अदालत के समक्ष, अगस्त 2018 के उस आदेश की कापी भी रखी गई जिसमें, मिलिटरी नर्सिंग सेवा (एमएनएस) में पुरुष नर्सों की भर्ती सम्बन्धी प्रस्ताव की व्यवहार्यता के अध्ययन पर, अधिकारियों का बोर्ड बनाने के बाबत कहा गया है. इस दफ्तरी आदेश में कहा गया है कि बोर्ड की प्रक्रिया पूरी करके इसकी रिपोर्ट 31 अक्टूबर तक जमा कर दी जाए.
दरअसल, दिल्ली हाई कोर्ट एक संस्था प्रोफेशनल नर्सेस एसोसिएशन की तरफ से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें कहा गया है कि एमएनएस में भर्ती में भेदभाव होता है. इस याचिका में कहा गया है कि देश में कई हजार की तादाद में योग्य और प्रशिक्षित प्रोफेशनल पुरुष नर्स हैं जिन्हें सेना की नर्सिंग कोर से हटाये रखकर रोज़गार और पेशेवर तरक्की के मौके से महरूम करना तर्कहीन और असंवैधानिक है. वकील अमित जार्ज और ऋषभ धीर के जरिये दायर इस याचिका में ये भी दलील दी गई है कि ऐसा करके सेना व राष्ट्र को बड़े संकल्पी पेशेवर समूह से वंचित रखा जा रहा है.
जनहित याचिका में मिलिटरी नर्सिंग सर्विसेज आर्डिनेंस 1943 (Military Nursing Services Ordinance 1943) और मिलिटरी नर्सिंग सर्विसेज (इंडिया) रूल्स 1944 (Military Nursing Service (India) Rules 1944) को इस पहलू से चुनौती दी गई है कि वह सिर्फ महिलाओं को ही नियुक्ति देता है.